भगवान परशुराम की जीवनगाथा: एक शस्त्रधारी ब्राह्मण की अनोखी कथा

भगवान विष्णु के दस अवतारों में छठा अवतार भगवान परशुराम का माना जाता है। वे सिर्फ एक वीर योद्धा नहीं थे और न ही केवल एक तपस्वी ऋषि, बल्कि इन दोनों का अनोखा मेल थे। इस लेख में हम भगवान परशुराम के जीवन, उनके संघर्षों, लीलाओं, और उनके आध्यात्मिक महत्व को सरल और क्रमवार तरीके से समझने की कोशिश करेंगे। साथ ही जानेंगे कि आज के समय में उनकी क्या प्रासंगिकता है।

भगवान परशुराम

परशुराम नाम दो शब्दों से मिलकर बना है — ‘परशु’ यानी कुल्हाड़ी, और ‘राम’ यानी भगवान विष्णु का अवतार। वे ऋषि जमदग्नि और माता रेणुका के पुत्र थे, लेकिन आम ऋषिपुत्र नहीं थे। ब्राह्मण होते हुए भी उन्होंने अन्याय के खिलाफ हथियार उठाया और धर्म की रक्षा के लिए क्षत्रियों के विरुद्ध युद्ध किया। उनके जीवन का हर पहलू — चाहे वह शिक्षा हो, क्रोध हो, तपस्या हो या युद्ध — सब धर्म की स्थापना के लिए था।

भगवान परशुराम ने अपनी कुल्हाड़ी भगवान शिव से प्राप्त की थी। वे ऐसे गुरु बने जिन्होंने भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे योद्धाओं को युद्ध की शिक्षा दी। और अंत में, उन्होंने अपनी पूरी धरती दान में देकर खुद को तपस्या में लगा दिया।

त्रेता, द्वापर और कलियुग – तीनों युगों में उपस्थिति

भगवान परशुराम की सबसे खास बात यह है कि वे त्रेता, द्वापर और कलियुग – तीनों युगों में मौजूद रहे हैं।

त्रेता युग में उनका सामना श्रीराम से हुआ था, जब श्रीराम ने शिवधनुष तोड़ा था। इस पर परशुराम नाराज़ हुए, लेकिन श्रीराम ने अपनी शांत बुद्धि और विनम्रता से उन्हें प्रभावित किया।

द्वापर युग में परशुराम ने भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे महान योद्धाओं को शस्त्र विद्या सिखाई। लेकिन जब कर्ण ने उनसे झूठ बोलकर शिक्षा ली, तो उन्होंने उसे शाप दिया, जो आगे चलकर उसकी मृत्यु का कारण बना।

कलियुग में परशुराम को चिरंजीवी (अमर) माना जाता है। ऐसा विश्वास है कि वे अब भी जीवित हैं और जब भगवान कल्कि का अवतार होगा, तब वे उन्हें युद्ध कला सिखाएंगे।

अद्वितीय अवतार

भगवान परशुराम केवल एक योद्धा या तपस्वी नहीं थे, बल्कि वे समाज में सुधार लाने वाले एक प्रेरणास्रोत बने। उन्होंने अन्याय और अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाई और धर्म की रक्षा के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किए।

जब क्षत्रिय राजा शक्ति का दुरुपयोग करने लगे, तो परशुराम जी ने इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार कर समाज में संतुलन स्थापित किया। उनका यह कार्य केवल युद्ध नहीं था, बल्कि यह एक न्याय की स्थापना का प्रयास था।

उनकी माता रेणुका की घटना ने यह दिखाया कि उनके भीतर संवेदनशीलता और पश्चाताप की भावना भी थी। यह बात उन्हें एक सामान्य योद्धा से अलग करती है।

जब उनके पिता ऋषि जमदग्नि की हत्या हुई, तो उनका क्रोध केवल प्रतिशोध नहीं था, बल्कि धर्म के मार्ग पर चलने वाली ऊर्जा बन गया।

जीवन के अंतिम चरण में उन्होंने पूरी पृथ्वी दान कर दी और महेंद्रगिरि पर्वत पर तपस्या में लीन हो गए। यह दिखाता है कि उन्होंने अहंकार को त्यागकर एक साधक का जीवन अपनाया।

जन्म और वंश

भगवान परशुराम का जन्म कोई साधारण घटना नहीं थी। यह एक ऐसा प्रसंग था, जो धर्म और तपस्या की पराकाष्ठा से उत्पन्न हुआ — जहाँ पिता के ब्रह्मतेज और माता के साध्वीत्व ने मिलकर एक ऐसे महापुरुष को जन्म दिया, जो न केवल युगों तक जीवित रहा, बल्कि धर्म की मर्यादा को फिर से परिभाषित कर गया।

ऋषि जमदग्नि और माता रेणुका की कथा

भगवान परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि सप्तर्षियों में से एक, भृगु ऋषि के वंशज थे। वे कठोर तपस्वी, वेदों के ज्ञाता, और ब्रह्मतेज से युक्त ऋषि थे। उनकी ख्याति इतनी व्यापक थी कि देवता भी उन्हें आदर देते थे। वे सत्य, संयम और धर्म के साक्षात स्वरूप माने जाते थे।

उनकी पत्नी माता रेणुका एक अत्यंत पुण्यात्मा, पवित्र और समर्पित स्त्री थीं। वे राजा ऋणधनु की पुत्री थीं, किंतु राजसी वैभव को त्याग कर ऋषि के आश्रम जीवन को अपनाया था। वे पतिव्रता की ऐसी प्रतिमूर्ति थीं कि उनकी तपशक्ति से वे प्रतिदिन जल से घड़ा बनाकर पानी लाती थीं — वह भी बिना किसी पात्र या उपकरण के।

रेणुका और जमदग्नि का जीवन एक आदर्श ऋषि-पत्नी का जीवन था, जिसमें त्याग, तप, सेवा और धर्म प्रमुख थे। इस युगल की तपस्या, संयम और शक्ति का ही परिणाम था कि उन्हें भगवान विष्णु का अवतार एक पुत्र के रूप में प्राप्त हुआ

भगवान परशुराम का जन्म

पौराणिक शास्त्रों के अनुसार, जब पृथ्वी पर अन्याय और क्षत्रिय अत्याचार बढ़ने लगे, तब देवताओं ने भगवान विष्णु से निवेदन किया कि वे धर्म की रक्षा हेतु पृथ्वी पर अवतार लें। उसी समय उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वे एक ऐसे रूप में अवतरित होंगे, जो ब्रह्मतेज और क्षात्रबल — दोनों का संगम होगा।

ऋषि जमदग्नि और माता रेणुका की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उनके गर्भ से जन्म लेने का निर्णय लिया। और तब, भृगुवंशी कुल में जन्म हुआ एक दिव्य बालक का, जिसका नाम रखा गया — राम। चूंकि उन्होंने भगवान शिव से परशु (कुल्हाड़ी) प्राप्त की थी, इसलिए वे परशु-धारी राम — अर्थात परशुराम कहे गए।

यह नाम ही उनके अद्वितीय स्वरूप की पहचान है — एक ओर वे राम हैं, जो मर्यादा और धर्म का प्रतीक हैं, और दूसरी ओर वे परशु धारण करने वाले योद्धा, जो अधर्म के विरुद्ध बिना संकोच शस्त्र उठाते हैं।

ब्राह्मण कुल में क्षात्र धर्म का आरंभ

परशुराम का जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था, परंतु उनका जीवनक्षेत्र केवल ज्ञान और वेदों तक सीमित नहीं रहा। वे एकमात्र ऐसे अवतार हैं, जिन्होंने ब्राह्मण होते हुए भी शस्त्रधारण किया, और स्वयं को धर्म की रक्षा के लिए क्षात्र कर्तव्यों में प्रवृत्त किया

यह विरोधाभास नहीं, बल्कि एक अद्भुत संतुलन था — उन्होंने यह दर्शाया कि जब धर्म पर संकट हो, तब कोई वर्ग, जाति या सामाजिक भूमिका मायने नहीं रखती — केवल कर्तव्य मायने रखता है।

यही कारण है कि परशुराम को ‘ब्राह्मणों में श्रेष्ठ और क्षत्रियों में अग्रणी’ कहा गया है। वे एक मिसाल हैं कि ज्ञान और शक्ति का संतुलन ही धर्म की सच्ची सेवा है।

तपस्या

भगवान परशुराम का प्रारंभिक जीवन एक ऐसे आश्रम में बीता, जहाँ नियम, तपस्या और धर्मपालन जीवन के प्रत्येक क्षण में विद्यमान था। ऋषि पिता जमदग्नि और माता रेणुका का सान्निध्य, उनके जीवन के प्रारंभिक चरणों को शुद्ध, अनुशासित और ब्रह्मतेज से ओतप्रोत बनाता है।

भगवान शिव से परशु प्राप्त करना

परशुराम की वीरता और साधना ने अंततः उन्हें उस बिंदु तक पहुँचा दिया जहाँ वे भगवान शिव के साक्षात शिष्य बने। उन्होंने शिवजी की घोर तपस्या की — महीनों तक पर्वतों पर व्रत, ध्यान और मंत्रजप किया।

भगवान शिव उनके वैराग्य, संकल्प और शक्ति की परख से अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने न केवल उन्हें परशु (एक दिव्य कुल्हाड़ी) प्रदान की, बल्कि उन्हें दिव्य अस्त्र-विद्या और ब्रह्मास्त्र की शिक्षा भी दी।

यहीं से उनका नाम ‘परशुराम’ पड़ा — अर्थात ‘परशु धारण करने वाला राम’

यह परशु केवल एक अस्त्र नहीं था — यह धर्म युद्ध का प्रतीक था, वह हथियार जो अन्याय, अत्याचार और अधर्म को समाप्त करने के लिए चलाया जाना था।

भगवान शिव ने परशुराम को यह आशीर्वाद भी दिया कि जब भी वे इस अस्त्र का उपयोग धर्म की रक्षा के लिए करेंगे, वह अविनाशी और अजेय रहेगा।

माता रेणुका का वध

तपस्वी परिवार का आदर्श जीवन

ऋषि जमदग्नि और माता रेणुका का जीवन एक आदर्श तपस्वी दंपति का जीवन था। वे महर्षि भृगु की परंपरा में जीवन जीते थे — नियम, तप, संयम और वैराग्य से भरा हुआ।
माता रेणुका अपने पवित्रता और तपशक्ति के लिए प्रसिद्ध थीं। उनकी तपस्या इतनी अद्भुत थी कि वे प्रतिदिन नदी से जल लाकर मिट्टी के बिना ही जल का घड़ा बनाकर लाती थीं, वह भी केवल अपनी तपोशक्ति से।

यह तप ही उनके पति जमदग्नि की आध्यात्मिक साधना में सहायक था, और इस जोड़े के संयमित जीवन से संपूर्ण ब्रह्मांड प्रभावित होता था।

मानसिक विचलन और तपशक्ति का क्षय

एक दिन की बात है। माता रेणुका, प्रतिदिन की भाँति नदी तट पर जल भरने गईं। उसी समय उन्होंने देखा कि पास ही एक गंधर्व कुमार जल क्रीड़ा कर रहा है। उसकी रूप-संपन्नता और यौवनमयी छवि को देखकर एक क्षण के लिए रेणुका का मन मोहित और विचलित हो गया। यह मोह क्षणिक था — मात्र एक विचार की तरह — लेकिन उसी क्षण उनकी तपशक्ति क्षीण हो गई। वह जल से घड़ा नहीं बना सकीं, और साधारण पात्र में जल भरकर लौट आईं। ऋषि जमदग्नि, जो योगबल से सब जानने में सक्षम थे, उन्होंने इस मानसिक विचलन को तुरंत जान लिया। उनका क्रोध भयंकर था, लेकिन यह केवल पत्नी के पाप पर नहीं, तप की भंगता और आश्रम की पवित्रता पर भी था

ऋषि का आदेश और पुत्र की परीक्षा

जैसे ही माता रेणुका आश्रम में लौटीं, ऋषि जमदग्नि ने अपने पांचों पुत्रों को बुलाया। उन्होंने सबसे पहले बड़े पुत्र से कहा,
“अपनी माता का सिर काट दो — उसने अपने मन को भ्रष्ट किया है।” बड़ा पुत्र स्तब्ध रह गया। उसने स्पष्ट इनकार कर दिया — “पिताश्री, मैं यह पापकर्म नहीं कर सकता।” ऋषि ने उसे शाप देकर नष्ट कर दिया।

इसी प्रकार चारों पुत्रों ने क्रमशः इनकार किया, और वे सभी ऋषि के श्राप से भस्म हो गए।

अब अंत में उन्होंने अपने सबसे छोटे पुत्र राम (परशुराम) को बुलाया — “हे राम, जाकर अपनी माता का वध करो।”

यह वह क्षण था जो इतिहास में कर्तव्य और भावनाओं के संघर्ष का सबसे कठोर अध्याय बन गया। परशुराम ने बिना प्रश्न किए, पिता की आज्ञा का पालन किया — उन्होंने तत्काल माता रेणुका का सिर काट दिया।

आज्ञा पालन का पुरस्कार और करुणा की पुकार

ऋषि जमदग्नि अपने पुत्र की आज्ञापालन भावना से प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा, “वत्स, मैं तुम्हारे धैर्य, समर्पण और तप में अडिगता से प्रसन्न हूँ। वर मांगो।” परशुराम की आँखों में अब गहरा पश्चाताप था। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा: “पिताश्री, मेरी माता को जीवनदान दीजिए। और मेरे चारों भ्राताओं को भी पुनर्जीवित कीजिए। यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं तो यह वरदान दें।”

ऋषि ने मुस्कराकर कहा:
“तथास्तु!”

उन्होंने योगबल से माता रेणुका और चारों पुत्रों को पुनर्जीवित कर दिया। माता की स्मृति से वह विचलन मिटा दिया गया और परिवार एक बार फिर एकत्र हुआ — लेकिन परशुराम का मन शांत न हो सका

सहस्त्रबाहु और कामधेनु की घटना

कौन था सहस्त्रबाहु अर्जुन?

सहस्त्रबाहु अर्जुन, जिसे केवल कार्तवीर्य अर्जुन के नाम से भी जाना जाता है, हैहय वंश का महान और अत्यंत शक्तिशाली राजा था।
उसके पास सहस्त्र (हज़ार) भुजाएं थीं — यह शक्ति उसे भगवान दत्तात्रेय के आशीर्वाद से प्राप्त हुई थी।
वह एक समय मालवा, मध्य प्रदेश से लेकर नर्मदा के किनारे तक का सम्राट था, और उसकी सत्ता दूर-दूर तक फैली हुई थी।
आरंभ में वह एक धर्मशील राजा था, लेकिन जैसे-जैसे शक्ति और ऐश्वर्य बढ़ा, वह अहंकारी, क्रूर और धर्मविहीन हो गया।

उसकी महात्वाकांक्षा और दंभ ने उसे यह विश्वास दिलाया कि राजसत्ता से बड़ा कुछ नहीं, और इसी घमंड में उसने एक ऐसी भूल की, जिसका दंड उसे भगवान परशुराम से भोगना पड़ा।

ऋषि जमदग्नि के आश्रम में आगमन

एक बार सहस्त्रबाहु अपने विशाल सेना और परिवार के साथ शिकार के लिए वन में निकला। जंगलों की थकावट के बाद वह महर्षि जमदग्नि के आश्रम में पहुंचा।
ऋषि ने अतिथि धर्म का पालन करते हुए सहस्त्रबाहु और उसकी पूरी सेना का अतुल्य सत्कार किया।

लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह थी कि यह सत्कार किसी भौतिक संसाधन से नहीं, बल्कि कामधेनु — एक दिव्य गाय की सहायता से किया गया था।
कामधेनु — जिसे सर्वकामदुधा कहते हैं — वह सभी इच्छाएं पूर्ण करने वाली गाय थी। वह देवताओं की धरोहर थी, जो ऋषि जमदग्नि को वरदानस्वरूप प्राप्त हुई थी।

कामधेनु ने अपनी दिव्य शक्तियों से विविध प्रकार के भोजन, सुख-सुविधाएं और सत्कार सामग्री उत्पन्न की। सहस्त्रबाहु यह देखकर चकित हो गया — और वहीं उसके लोभ का अंकुर फूट पड़ा

कामधेनु का हरण

सहस्त्रबाहु ने कामधेनु को देख कर कहा:
“ऐसी अद्भुत गाय मेरे राज्य की शोभा होनी चाहिए, ऋषियों के लिए नहीं। यह तो राजा को ही शोभा देती है।”

ऋषि जमदग्नि ने विनम्रता से उत्तर दिया:
“राजन, यह मुझे तपस्या से प्राप्त हुई है, यह किसी राजकीय संग्रह की वस्तु नहीं। यह मेरी साधना की शक्ति है।”

परंतु सहस्त्रबाहु, जो अब तक अपने बल और भुजाओं पर गर्व करने लगा था, उसने बलपूर्वक कामधेनु को हरण कर लिया
उसने ऋषि की कोई बात नहीं मानी, और गाय को बलपूर्वक अपने रथ में बांधकर चले गया

यह एक ऐसा कार्य था, जो न केवल ऋषि का अपमान था, बल्कि अहिंसा, तपस्या और धर्म का भी अपमान था। यह केवल एक गाय का हरण नहीं, बल्कि तप के बल का अपमान और साधुओं के आत्मसम्मान का हनन था।

परशुराम का प्रतिशोध

जब परशुराम को यह समाचार मिला कि सहस्त्रबाहु ने उनके पिता का अपमान कर कामधेनु को बलपूर्वक हरण कर लिया, तो उनका क्रोध प्रचंड हो उठा।
वे तुरंत अपने परशु (कुल्हाड़ी) और अस्त्रों को धारण कर युद्ध के लिए प्रस्थान कर गए।

उनका मार्ग कोई व्यक्तिगत बदला नहीं था — यह एक धार्मिक प्रतिक्रिया थी। उन्होंने कहा:
“जब राजा धर्म का अपमान करे, जब सत्ता संन्यासियों का अपमान करे — तब ब्रह्मतेज को शस्त्र उठाना ही चाहिए।”

परशुराम ने सहस्त्रबाहु के महल पर धावा बोला।
वहां भयंकर युद्ध हुआ — उन्होंने कार्तवीर्य अर्जुन की सहस्त्र भुजाओं को एक-एक करके काटा, और अंत में उसका वध कर दिया
उन्होंने कामधेनु को मुक्त कर आश्रम वापस लौटाया।

पिता की हत्या और क्षत्रियों का संहार

सहस्त्रबाहु का अंत, परंतु उसकी संतानों का दंभ

भगवान परशुराम ने सहस्त्रबाहु अर्जुन का वध कर धर्म की रक्षा तो की, लेकिन हैहय वंश के अन्य क्षत्रियों में इस घटना को लेकर क्रोध और प्रतिशोध की भावना घर कर गई थी।
विशेषतः सहस्त्रबाहु के पुत्र अपने पिता की मृत्यु को लेकर व्याकुल थे — उन्होंने इसे एक अपमानजनक पराजय माना और मन ही मन परशुराम से प्रतिशोध लेने की योजना बनाने लगे।

ये सभी क्षत्रिय, जो पहले से ही शक्ति और वैभव के दंभ से भरे थे, अब और अधिक उन्मादी और धर्मविहीन हो उठे। उन्होंने परशुराम का प्रत्यक्ष सामना करने का साहस नहीं किया, लेकिन उन्होंने चुना एक कायरतापूर्ण मार्गपिता जमदग्नि की हत्या।

ऋषि जमदग्नि की हत्या

भगवान परशुराम युद्ध से लौटने के बाद महेन्द्रगिरि पर्वत पर तपस्या में लीन हो गए। उसी दौरान सहस्त्रबाहु के पुत्रों ने गुप्त रूप से ऋषि जमदग्नि के आश्रम पर आक्रमण कर दिया
उनका उद्देश्य केवल प्रतिशोध नहीं था, बल्कि ऋषि परशुराम को मानसिक पीड़ा देना भी था।

ऋषि जमदग्नि, जो एक साधारण, शांत और तपस्वी जीवन जी रहे थे, उन्होंने किसी प्रकार का प्रतिरोध नहीं किया। वे धर्म और संयम के प्रतीक थे — और उसी मर्यादा में उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।

हमला इतना क्रूर था कि सहस्त्रबाहु के पुत्रों ने न केवल उन्हें मारा, बल्कि उनका सिर भी धड़ से अलग कर दिया — ताकि यह संदेश पूरे संसार में फैले कि कोई भी राजा, किसी भी ब्राह्मण को झुकाकर रख सकता है।

यह घटना न केवल एक ऋषि की हत्या थी, बल्कि पूरे सनातन धर्म की आत्मा पर प्रहार था।

माता रेणुका का विलाप और परशुराम का आक्रोश

जब भगवान परशुराम तपस्या से लौटे, तो उन्होंने देखा कि आश्रम भय, खून और चीत्कार से भरा हुआ है
माता रेणुका, अत्यंत पीड़ित और विकल, अपने पति के कटे हुए सिर को गोद में लेकर बैठी थीं। उनके नेत्रों में आँसू नहीं थे — केवल शून्यता और दहकता हुआ दुःख था।

परशुराम के हृदय में वज्र समान आघात हुआ।
उन्होंने माता से पूछा,
“माता, किसने यह अधर्म किया?”

माता ने अश्रुपूरित नेत्रों से उत्तर दिया:
“सहस्त्रबाहु के पुत्रों ने तुम्हारे पिता को मारा — और तुम तपस्या में लीन थे।”

परशुराम का वह क्षण एक तपस्वी से योद्धा में परिवर्तन का बिंदु बन गया। उनके नेत्र क्रोध से जल उठे, परशु उनके हाथ में स्वतः आ गया, और उन्होंने उसी क्षण प्रतिज्ञा ली:

“जब तक मैं इस पृथ्वी से अत्याचारी क्षत्रियों को 21 बार न समाप्त कर दूँ, तब तक न तो तप करूंगा, न शांति से बैठूंगा।”

21 बार क्षत्रियों का संहार

भगवान परशुराम ने अपने परशु को उठाया और चल पड़े एक महान धर्मयुद्ध के लिए।

  • उन्होंने हैहय वंश के प्रत्येक राजा, सैनिक और सहयोगी वंशों को परास्त किया
  • एक बार नहीं, दो बार नहीं — पूरे इक्कीस बार, उन्होंने पृथ्वी को क्षत्रियों से मुक्त कर दिया।
  • जो भी राजा अधर्म का पक्षधर था, जो अहंकार में चूर था, जिसने तपस्वियों का अपमान किया था — वह परशुराम के शस्त्र का शिकार बना।

पुराणों में वर्णन आता है कि परशुराम ने क्षत्रियों का रक्त सरस्वती नदी में बहाया, और वहाँ एक खड्ग तीर्थ की स्थापना की।

पृथ्वी का दान और तपस्या

संहार के बाद उत्पन्न वैराग्य

भगवान परशुराम ने 21 बार क्षत्रियों का संहार कर अधर्म का विनाश तो कर दिया, परंतु यह विजय उन्हें आंतरिक संतोष नहीं दे सकी
उनकी आत्मा में एक अद्भुत द्वंद्व शुरू हो गया —
“क्या मैंने धर्म की रक्षा की? या मैं भी उसी मार्ग पर चला, जहाँ केवल हिंसा है?”

हालाँकि उनका प्रत्येक कार्य धर्म के आधार पर था, फिर भी उनके भीतर एक गहरा आत्मावलोकन जागृत हुआ।
उन्होंने महसूस किया कि शस्त्र के बल से अधर्म का नाश किया जा सकता है, लेकिन सच्ची शांति केवल तपस्या और त्याग से ही प्राप्त होती है।

उनका यह बोध उन्हें एक ऐसे मार्ग पर ले गया, जहाँ उन्होंने संपूर्ण पृथ्वी का परित्याग कर उसे दूसरों को सौंपने का निर्णय लिया।

महर्षि कश्यप को पृथ्वी दान करना

परशुराम ने एक निर्णय लिया —
“जिस पृथ्वी को मैंने क्षत्रियों से मुक्त किया, अब वह मेरा नहीं — उसे किसी योग्य ब्राह्मण को सौंप देना ही मेरा कर्तव्य है।”

उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी को महर्षि कश्यप को दान कर दिया।
महर्षि कश्यप को सृष्टि का पालक, संतुलन का प्रतीक और सप्तर्षियों में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था।
उन्होंने परशुराम के इस दान को स्वीकार किया और कहा:
“अब यह भूमि मेरे अधीन है, और तुम्हें यहाँ से निवृत्त होकर तपस्या के पथ पर जाना चाहिए।”

इस घटना को ‘भूदान प्रसंग’ कहा जाता है — और यह एकमात्र ऐसा प्रसंग है जहाँ एक योद्धा ने सम्पूर्ण पृथ्वी का दान कर दिया।

महेन्द्रगिरि पर्वत पर तपस्या

पृथ्वी का दान करने के बाद भगवान परशुराम ने ओडिशा और आंध्र प्रदेश की सीमा पर स्थित महेन्द्रगिरि पर्वत को अपना निवास बनाया।
यह पर्वत आज भी उनके तप, साधना और आत्मचिंतन का साक्षी है।

वहाँ वे एक गहन तपस्या में लीन हो गए — उन्होंने शस्त्र को त्याग कर जप, ध्यान और मौन का व्रत लिया।
वहां उन्होंने वर्षों तक ध्यान किया, और आत्मशुद्धि का मार्ग अपनाया।

यह वही स्थान है जहाँ परशुराम आज भी तपस्या में लीन माने जाते हैं, और इसलिए उन्हें चिरंजीवी कहा गया है — वे मृत्यु से परे, युगों से जीवित, और युगांत तक उपस्थित हैं।

परशुराम और श्रीराम का आमना-सामना

पृष्ठभूमि: जनकपुर में शिव धनुष का टूटा जाना

यह घटना त्रेता युग की है।
मिथिला के राजा जनक ने अपनी पुत्री सीता के स्वयंवर के लिए एक अनूठी शर्त रखी थी —
“जो वीर भगवान शिव के धनुष को उठाकर उसकी प्रत्यंचा चढ़ा सकेगा, वही सीता का वरण कर सकता है।”

यह धनुष कोई साधारण शस्त्र नहीं था — यह वह दिव्य पिनाक धनुष था जिसे स्वयं भगवान शिव ने धारण किया था।
श्रीराम, जिनका व्यक्तित्व पूर्णत: संतुलित, मर्यादित और शालीन था, उन्होंने न केवल उस धनुष को उठाया, बल्कि जैसे ही प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयास किया — वह धनुष बीच से टूट गया

यह घटना सारे राजाओं, ऋषियों और उपस्थिति देवों को चमत्कृत कर गई।
परंतु, इस धनुष के टूटने की प्रतिध्वनि भगवान परशुराम तक पहुँची — और वह उन्हें अत्यंत आहत कर गई।

परशुराम का आगमन — क्रोध में लिपटा हुआ धर्म

भगवान परशुराम, जो उस समय महेन्द्रगिरि पर्वत पर तपस्या कर रहे थे, जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि किसी ने शिव धनुष को तोड़ दिया है, तो उन्हें लगा कि यह शिव और सनातन परंपरा का अपमान है।

उन्होंने तत्काल अपने परशु, धनुष और बाण उठाए, और तूफ़ान की भाँति जनकपुरी की सभा में प्रवेश किया
उनकी उपस्थिति इतनी तेजस्वी और भयावह थी कि सभा में मौन छा गया।

परशुराम ने तीव्र वाणी में कहा —
“कौन है वह दुस्साहसी जिसने भगवान शिव के धनुष को तोड़ा? क्या उसे अपने प्राणों की चिंता नहीं?”

सभा में उपस्थित सभी राजाओं और ब्राह्मणों ने सिर झुका लिया
श्रीराम, जो स्वयं को दोषी मानते थे, शांति और विनम्रता के साथ सामने आए, और कहा —
“भगवन्, वह धनुष मैंने ही तोड़ा है — पर मेरा उद्देश्य अपमान नहीं था, केवल परीक्षा थी।”

परशुराम की परीक्षा — शक्ति बनाम संयम

भगवान परशुराम क्रोधित थे, किंतु राम के मुख से निकले वचनों में विनय, विवेक और आत्मबल था।
परशुराम ने श्रीराम को एक दिव्य धनुष और बाण प्रदान करते हुए कहा
“यदि तुम सचमुच योग्य हो, तो इस धनुष को उठाओ और इस बाण को चढ़ाओ। तभी मैं मानूंगा कि तुम मेरे सामने खड़े होने योग्य हो।”

श्रीराम ने न कोई गर्व दिखाया, न कोई भय —
उन्होंने शांति से धनुष उठाया, बाण चढ़ाया और परशुराम से पूछा:
“भगवन्, अब आज्ञा दीजिए कि इस बाण को कहाँ चलाना है?”

यह दृश्य देखकर परशुराम हैरान और मौन हो गए।
उन्हें एकाएक आभास हुआ कि यह कोई साधारण मानव नहीं, अपितु स्वयं उनके ही ईश – भगवान विष्णु का नवीन अवतार है।

वे स्तब्ध होकर बोले —
“हे राम, मुझे क्षमा करें। आपने मेरी आँखें खोल दीं। आज मैं समझ गया कि युग परिवर्तन का समय आ गया है। अब मेरी भूमिका पूर्ण हुई। आप ही धर्म की नई व्याख्या करने आए हैं।”

परशुराम का वानप्रस्थ स्वीकारना

इस घटना के बाद भगवान परशुराम ने श्रीराम को अपना आशीर्वाद और शस्त्र विद्या का उत्तराधिकार प्रदान किया।
उन्होंने घोषणा की कि अब वे संसारिक कार्यों से पूर्णतः निवृत्त होंगे और शेष जीवन तपस्या में ही व्यतीत करेंगे।

उन्होंने कहा:
“अब समय मेरा नहीं — अब यह युग श्रीराम का है। मेरा कार्य पूर्ण हुआ।”

परशुराम और कर्ण की कथा (महाभारत प्रसंग)

कर्ण: सूर्यपुत्र, परंतु समाज द्वारा उपेक्षित

कर्ण, जिनका जन्म कुंती और सूर्य देव के योग से हुआ था, लेकिन जन्म होते ही वे गंगा में प्रवाहित कर दिए गए।
उन्हें एक सारथी अधिरथ और उसकी पत्नी राधा ने पाला — इसलिए वे सूतपुत्र कर्ण कहलाए।

कर्ण जन्म से क्षत्रिय थे, परंतु उन्होंने जीवन भर ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों वर्गों की उपेक्षा झेली
उनकी आकांक्षा थी — सर्वोत्तम धनुर्धर बनने की, लेकिन उस समय के ब्राह्मण और राजकुल उन्हें शिक्षा देने से इनकार कर देते थे।
तब उन्होंने निश्चय किया कि वे किसी ऐसे गुरु के पास जाएंगे, जो वर्ण, कुल और जाति से ऊपर उठकर केवल पात्रता को महत्व देता हो

परशुराम की शरण में

कर्ण को ज्ञात था कि भगवान परशुराम क्षत्रियों को शिक्षा नहीं देते
उन्होंने स्वयं संकल्प लिया था कि “कभी किसी क्षत्रिय को युद्ध विद्या नहीं सिखाऊँगा।”
परंतु कर्ण की लालसा इतनी तीव्र थी कि उन्होंने अपने को ब्राह्मण बताकर परशुराम की शरण ली।

परशुराम, जिनकी दृष्टि में तप, सेवा और समर्पण ही पात्रता के मापदंड थे, उन्होंने कर्ण को स्वीकार कर लिया।
कर्ण ने पूरे समर्पण और श्रद्धा से उनसे दिव्यास्त्र, ब्रह्मास्त्र और परशु संचालन सहित सभी युद्ध विद्या सीखी।
वे परशुराम के प्रिय शिष्यों में से एक बन गए — उन्होंने सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी, और गुरु भी उसकी लगन से अत्यंत प्रसन्न थे।

शाप की वह मार्मिक घटना

एक दिन की बात है —
परशुराम तप से थककर कर्ण की गोद में विश्राम कर रहे थे।
उसी समय एक जहरीला कीड़ा कर्ण की जंघा पर चढ़ गया और उसकी त्वचा में घुसकर लहू बहाने लगा
कर्ण ने अपने गुरु की नींद न टूटे, इस कारण वह कष्ट सहते हुए भी शांत बैठा रहा
उसके शरीर से रक्त बहता रहा, पर उसने उफ्फ तक नहीं की।

परशुराम की नींद टूटी तो उन्होंने देखा कि कर्ण की जंघा से रक्त बह रहा है।
वे चौंक गए — और बोले:
“वत्स, तुम तो ब्राह्मण हो — ब्राह्मण ऐसा कष्ट कैसे सह सकता है? यह सहनशीलता तो केवल क्षत्रिय की हो सकती है।”

यह कहकर उन्होंने कर्ण को घूरा और पूछा —
“सत्य बताओ, तुम कौन हो?”

कर्ण अब गुरु के सामने झूठ नहीं बोल सका। उसने सिर झुकाकर कहा —
“गुरुदेव, मैं क्षत्रिय नहीं, लेकिन ब्राह्मण भी नहीं — मैं एक सूतपुत्र हूँ। मैं आपसे ज्ञान पाने योग्य नहीं था, इसलिए मैंने असत्य कहा। मैं केवल विद्या प्राप्त करना चाहता था।”

परशुराम का शाप

परशुराम यह सुनकर अत्यंत पीड़ित हुए।
उनका क्रोध उस छल पर था, जिसने उनके व्रत और संकल्प को तोड़ा
उन्होंने कर्ण से कहा:
**“वत्स, तुमने मुझसे छल किया। इस ज्ञान को पाकर तुम महान बन सकते थे, परंतु यह ज्ञान अब तुम्हारे किसी काम नहीं आएगा, क्योंकि यह सत्य पर आधारित नहीं है।
मैं तुम्हें यह शाप देता हूँ —
जब तुम युद्धभूमि में अपने अस्त्रों की सबसे अधिक आवश्यकता अनुभव करोगे, तब तुम उन्हें भूल जाओगे।”

यह शाप सुनकर कर्ण स्तब्ध रह गया। उसने हाथ जोड़कर क्षमा माँगी।
परशुराम का हृदय पिघल गया — उन्होंने कहा:
“तुम एक महान योद्धा हो, और मेरा शिष्य भी। मेरी विद्या तुम्हारे मन में है — यदि तुम धर्म के मार्ग पर चलोगे, तो यह तुम्हारे भीतर जागृत होगी।
परंतु यदि तुम अधर्मियों का साथ दोगे, तो यह शाप पूर्ण रूप से फलेगा।”

अन्य प्रसिद्ध शिष्य

भगवान परशुराम के शिष्य केवल युद्ध की शिक्षा लेने वाले योद्धा नहीं थे — वे धर्म, नीतिशास्त्र, तप और शासन के विभिन्न स्तरों के विद्यार्थी थे।
परशुराम ने जहां एक ओर अस्त्र-शस्त्र और युद्धनीति सिखाई, वहीं दूसरी ओर संयम, नीति, गुरु-शिष्य मर्यादा, और धर्मक्षेत्र में संतुलन का पाठ भी पढ़ाया।

1. भीष्म पितामह (देवव्रत)

देवव्रत, जो आगे चलकर भीष्म पितामह के नाम से विख्यात हुए, भगवान परशुराम के सबसे प्रतिभाशाली और मर्यादित शिष्यों में से एक थे।
भीष्म ने भगवान परशुराम से दिव्यास्त्र विद्या, धनुष संचालन, और रणनीति सीखी थी।

यह शिक्षा केवल शस्त्रों तक सीमित नहीं थी — परशुराम ने उन्हें राजधर्म, गुरु निष्ठा और प्रतिज्ञा के पालन की प्रेरणा भी दी थी।
भीष्म की भीष्म-प्रतिज्ञा — आजीवन ब्रह्मचर्य और सिंहासन का त्याग — परशुराम की ही दी हुई प्रेरणा का विस्तार मानी जाती है।

भीष्म और परशुराम का युद्ध

एक समय ऐसा भी आया जब परशुराम और भीष्म के बीच युद्ध हुआ —
अंबा नामक कन्या, जिनका अपहरण भीष्म ने किया था, और जिन्हें उन्होंने बाद में अस्वीकार कर दिया, वह परशुराम की शरण में गईं।

परशुराम ने न्याय के पक्ष में भीष्म को युद्ध के लिए ललकारा
दोनों महान योद्धाओं के बीच 23 दिनों तक युद्ध हुआ, लेकिन अंततः दोनों के तेज और संयम ने इस युद्ध को निर्णायक न बनने दिया

यह युद्ध केवल बाह्य नहीं, बल्कि गुरु और शिष्य के बीच सिद्धांतों की परीक्षा भी था।

2. आचार्य द्रोण

द्रोणाचार्य, जो आगे चलकर कौरवों और पांडवों के गुरु बने, वे भी भगवान परशुराम के शिष्य रहे।
उन्होंने परशुराम से दिव्यास्त्रों की शिक्षा प्राप्त की — विशेषकर ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र और युद्ध की रणनीतियां

द्रोणाचार्य ने परशुराम से जो भी संपत्ति, शस्त्र और ज्ञान पाया — वह बाद में उन्होंने हस्तिनापुर के युवराजों को समर्पित किया
परशुराम ने उन्हें दान के रूप में अपना धन, अस्त्र और गुरु पद का दायित्व सौंपा।

यह शिक्षा एक श्रृंखला की तरह थी — जिसमें परशुराम से ज्ञान पाकर द्रोण ने उसे आगे समाज को दिया।

3. कर्ण (जैसा कि पिछले खंड में विस्तार से बताया गया)

कर्ण का नाम भी परशुराम के प्रमुख शिष्यों में आता है —
हालांकि उन्होंने गुरु से छल द्वारा शिक्षा प्राप्त की, परंतु उन्होंने ज्ञान को आत्मसात पूरी श्रद्धा से किया।
कर्ण को परशुराम ने जितनी गहराई से युद्ध विद्या सिखाई, उतना शायद ही किसी और को दी हो — और यह उनके गुरु-भाव की विशालता को दर्शाता है।

4. अन्य गुप्त और अल्पज्ञात शिष्य

इतिहास और पुराणों में यह भी उल्लेख मिलता है कि परशुराम के कुछ शिष्य गुप्त रूप से प्रशिक्षित किए गए, जो समाज में अन्याय, अपराध और अधर्म के विरुद्ध ध्यान से छिपकर कार्य करते थे
ये शिष्य राजा नहीं थे, न ही महाभारत के नायक — लेकिन ये परशुराम की विचारधारा को विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त करने वाले गुप्त सेवक थे।

कुछ मतों में यह भी माना गया है कि कल्कि अवतार के लिए परशुराम आज भी एक गुप्त विद्याश्रम में योग्य शिष्य तैयार कर रहे हैं, जिन्हें युगांत पर युद्ध भूमि में उतारा जाएगा।

महाभारत में परशुराम की भूमिका

प्रत्यक्ष युद्ध में अनुपस्थिति, परंतु नायकत्व में उपस्थिति

महाभारत के युद्ध में भगवान परशुराम ने सशरीर भाग नहीं लिया, लेकिन वे उस युद्ध के प्रभावशाली पात्रों के गुरु और मार्गदर्शक अवश्य थे।
वे उन चुनिंदा चिरंजीवियों में हैं, जिनकी उपस्थिति द्वापर युग से कलियुग तक मानी जाती है
इसलिए वे महाभारत के युग में भी जीवित थे, और उनके शिष्य — भीष्म, द्रोण और कर्ण — युद्ध के तीन सबसे प्रमुख योद्धा रहे।

इस प्रकार, परशुराम की भूमिका किसी सेनापति की नहीं, बल्कि गुरु, प्रेरणास्रोत और मार्गदर्शक की थी, जो परदे के पीछे रहकर भी संकल्प, नीति और धर्म की धारा को आकार दे रहे थे

कर्ण, द्रोण और भीष्म — परशुराम की परंपरा के वाहक

  • कर्ण — जो परशुराम का विशेष शिष्य था, वह कौरव पक्ष से युद्ध में शामिल हुआ।
    उसका पराक्रम, अस्त्रविद्या और नैतिक संकट — सब परशुराम की दी गई शिक्षा का प्रभाव था।
    लेकिन गुरु के शाप के कारण, युद्ध के अंतिम समय में वह अपने ब्रह्मास्त्र और दिव्यास्त्रों को भूल गया, जिससे उसकी पराजय हुई।
  • द्रोणाचार्य — परशुराम से दीक्षित एक और महान योद्धा, जिन्होंने कौरव और पांडव दोनों को शिक्षा दी।
    उनके भीतर की नीति, शिक्षण की गंभीरता, और युद्ध की गूढ़ दृष्टि — सब परशुराम की गुरुता का परिणाम थी।
  • भीष्म पितामह — जिन्होंने न केवल परशुराम से युद्ध विद्या प्राप्त की, बल्कि धर्म और प्रतिज्ञा की मर्यादा को जीवन भर निभाया।
    उनका धर्म संकट — जहां वे अधर्मी कौरवों के पक्ष में खड़े होकर भी धर्म की रक्षा कर रहे थे — यह भी परशुराम की शिष्यता की गहराई को दर्शाता है।

परशुराम का आत्मसंयम — धर्मयुद्ध से दूरी

महाभारत युद्ध ऐसा अवसर था, जहाँ भगवान परशुराम अपने तीन प्रमुख शिष्यों को आमने-सामने लड़ता देख सकते थे, परंतु उन्होंने स्वयं को युद्ध से दूर रखा।
यह उनकी वैराग्यपूर्ण दृष्टि और आध्यात्मिक परिपक्वता का परिचायक है।
वे जानते थे कि यह युद्ध कर्मों का फल है, और अब उनका कार्य दिशा देना था, हस्तक्षेप करना नहीं।

वह किसी भी पक्ष में न खड़े होकर, एक निष्पक्ष अध्यापक के रूप में अपनी भूमिका निभाते रहे।

द्रौपदी स्वयंवर में परशुराम का अप्रत्यक्ष उल्लेख

द्रौपदी स्वयंवर के समय, जब अर्जुन ब्राह्मण वेष में धनुष उठाते हैं, तब सभा में उपस्थित कुछ ब्राह्मण संदेह प्रकट करते हैं कि यह वीर कोई क्षत्रिय हो सकता है जो ब्राह्मण वेष में आया है
इस पर द्रौणाचार्य कहते हैं —
“यदि वह ब्राह्मण वेष में है, और शक्ति और संयम से परिपूर्ण है, तो यह परशुराम की परंपरा का अनुकरण है।”

यह उल्लेख बताता है कि परशुराम केवल व्यक्ति नहीं, बल्कि एक युगपरंपरा और मर्यादाबद्ध आचरण के प्रतीक बन चुके थे।

चिरंजीवियों में स्थान और कलियुग में भूमिका

चिरंजीवी का अर्थ और परशुराम का स्थान

संस्कृत शब्द “चिरंजीवी” दो शब्दों से मिलकर बना है —
“चिरं” अर्थात दीर्घकाल तक और “जीवी” अर्थात जीवित रहने वाला।
सनातन परंपरा में यह माना जाता है कि कुछ दिव्य आत्माएं युगों तक पृथ्वी पर जीवित रहती हैं, ताकि वे समय आने पर धर्म की स्थापना में सहायक बनें

ऐसे आठ चिरंजीवियों में भगवान परशुराम का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
अन्य सात चिरंजीवी हैं — हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, व्यास, बली और मार्कंडेय।
इनमें भगवान परशुराम को “अमर योद्धा और गुरु” के रूप में जाना जाता है।

उनकी चिरंजीविता केवल शरीर की नहीं, बल्कि उनके ज्ञान, शक्ति और कर्तव्यों के अनवरत प्रवाह की प्रतीक है।

महेन्द्रगिरि पर्वत — परशुराम का निवास

कहा जाता है कि परशुराम ने जब क्षत्रियों का संहार कर पृथ्वी का दान किया, तब उन्होंने अपना शेष जीवन महेन्द्रगिरि पर्वत (वर्तमान ओडिशा और आंध्रप्रदेश की सीमा) पर तपस्या में बिताने का संकल्प लिया।

वहां वे आज भी अदृश्य रूप में तप में लीन हैं।
कई साधकों और तीर्थयात्रियों ने यह अनुभव किया है कि महेन्द्रगिरि क्षेत्र में दिव्य ऊर्जा और कंपन अब भी विद्यमान हैं — जिसे परशुराम की उपस्थिति का संकेत माना जाता है।

इस स्थान पर भगवान परशुराम के नाम पर मंदिर और आश्रम भी हैं, जो उन्हें तपस्वी योद्धा के रूप में स्मरण करते हैं।

कलियुग में भूमिका — कल्कि अवतार को शस्त्र विद्या देना

सनातन धर्म के अनुसार, भगवान विष्णु का अंतिम और दशम अवतार कलियुग के अंत में कल्कि के रूप में अवतरित होगा।
यह अवतार अधर्म के चरम पर पहुँच जाने के बाद, संसार से अंधकार को समाप्त करने के लिए प्रकट होगा।

शास्त्रों में उल्लेख है कि —
“परशुराम, जो आज भी पृथ्वी पर हैं, वे कल्कि अवतार के गुरु बनेंगे। वे उन्हें शस्त्रविद्या का संपूर्ण ज्ञान देंगे, जिससे कल्कि अधर्म के विरुद्ध अंतिम धर्मयुद्ध कर सकें।”

यह भविष्यवाणी परशुराम के चिरंजीवी होने के आध्यात्मिक उद्देश्य को स्पष्ट करती है —
उनकी उपस्थिति धर्म की अगली कड़ी को सक्षम करने के लिए है, न कि केवल इतिहास का हिस्सा बने रहने के लिए।

परशुराम से जुड़ी मान्यताएं और लोककथाएं

1. समुद्र से केरल का निर्माण

भारत की सबसे प्रसिद्ध लोककथाओं में से एक यह है कि भगवान परशुराम ने केरल प्रदेश का निर्माण किया
यह कथा इस प्रकार है:

जब परशुराम ने पृथ्वी का दान महर्षि कश्यप को कर दिया, तो उन्हें स्वयं के निवास के लिए स्थान नहीं बचा
तब उन्होंने पश्चिमी समुद्र तट पर जाकर अपने परशु (कुल्हाड़ी) को समुद्र की ओर फेंका और आदेश दिया:
“हे समुद्र! जहाँ तक मेरा परशु गिरेगा, वहाँ तक तू पीछे हट जा।”

कहा जाता है कि समुद्र सचमुच पीछे हट गया, और वह भूमि जो उत्पन्न हुई, वह आज का केरल कहलाती है।
यह कथा आज भी केरल के सांस्कृतिक गौरव का हिस्सा है — और परशुराम को “केरल का निर्माता” माना जाता है।

केरल के कई मंदिरों और सांस्कृतिक उत्सवों में आज भी भगवान परशुराम की पूजा होती है।

2. परशुराम तीर्थ — भारतभर में फैली आध्यात्मिक उपस्थिति

भारत के विभिन्न हिस्सों में भगवान परशुराम से संबंधित तीर्थस्थल, मंदिर और गाथाएं मिलती हैं:

  • महेन्द्रगिरि (ओडिशा) — यह वह पर्वत है जहाँ परशुराम आज भी तप में लीन माने जाते हैं।
  • चिपलून (महाराष्ट्र) — यहाँ परशुराम मंदिर स्थित है, जो पश्चिमी तट पर स्थित अत्यंत प्रसिद्ध तीर्थ है।
  • परशुराम कुंड (अरुणाचल प्रदेश) — यह तीर्थ ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे स्थित है, और यहां हर वर्ष मकर संक्रांति पर हजारों श्रद्धालु स्नान करने आते हैं।
  • रेणुका झील (हिमाचल प्रदेश) — इसे परशुराम की माता रेणुका का स्थान माना जाता है, और यहां परशुराम जी का मंदिर भी स्थित है।

इन तीर्थों की उपस्थिति यह दर्शाती है कि परशुराम की पूजा केवल धार्मिक कर्मकांड तक सीमित नहीं, बल्कि देश के सांस्कृतिक भूगोल में गहराई तक व्याप्त है।

परशुराम जयंती और त्योहार

परशुराम जयंती कब मनाई जाती है?

परशुराम जयंती हर वर्ष वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाई जाती है। यह तिथि अक्षय तृतीया के दिन ही आती है, जो अपने आप में अत्यंत पावन मानी जाती है।

अक्षय तृतीया का अर्थ होता है — वह तिथि जिसका फल कभी क्षीण नहीं होता। इस दिन कोई भी शुभ कार्य किया जाए — उसका फल अनंतकाल तक अक्षय रहता है।

इसी तिथि को भगवान परशुराम का जन्म हुआ, अतः यह दिन विशेष महत्व रखता है। वर्ष 2025 में परशुराम जयंती मंगलवार, 29 अप्रैल को मनाई जाएगी।

अधिक जानकारी के लिए : परशुराम जयंती 2025 कब है? तिथि, महत्व, पूजा विधि

पूजा विधि और धार्मिक परंपराएं

परशुराम जयंती के दिन भक्तगण विशेष रूप से निम्न विधियों से पूजन करते हैं:

  1. प्रातःकाल स्नान करके संकल्प लिया जाता है।
  2. भगवान परशुराम की मूर्ति या चित्र को स्वच्छ स्थान पर स्थापित किया जाता है।
  3. पंचामृत स्नान, पुष्प, अक्षत, चंदन, दूर्वा, तिल और विशेष रूप से शस्त्रों का पूजन किया जाता है — क्योंकि वे शस्त्रधारी ब्राह्मण के प्रतीक हैं।
  4. भगवान विष्णु के बीज मंत्र और परशुराम गायत्री मंत्र का जाप किया जाता है: “ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि। तन्नो परशुराम प्रचोदयात्॥”
  5. व्रत रखकर दिनभर भक्ति और कथा श्रवण का आयोजन होता है।
  6. ब्राह्मणों को दान, अन्न, वस्त्र और दक्षिणा देकर पुण्य प्राप्त किया जाता है।

परशुराम जयंती का सामाजिक और धार्मिक महत्व

  • यह दिन उन मूल्यों की पुनः स्मृति कराता है, जिनके लिए परशुराम ने जीवन भर संघर्ष किया —
    धर्म की रक्षा, सत्य के लिए संघर्ष, और अन्याय का विरोध।
  • यह दिन ब्राह्मण समाज में आत्मगौरव, संगठन और सांस्कृतिक जागरण का प्रतीक भी बन चुका है।
  • कई स्थानों पर शौर्य यात्राएं, धार्मिक सभाएं, और विचार गोष्ठियाँ आयोजित की जाती हैं, जिनमें परशुराम के जीवन और आदर्शों का प्रचार होता है।

परशुराम से संबंधित प्रमुख मंदिर और तीर्थ स्थल

1. परशुराम मंदिर – चिपलून (महाराष्ट्र)

  • स्थान: चिपलून, रत्नागिरी ज़िला, महाराष्ट्र
  • विशेषता: यह भारत के सबसे प्राचीन और प्रमुख परशुराम मंदिरों में से एक है।
  • यह मंदिर प्राचीन सह्याद्रि पर्वतमाला के किनारे स्थित है और इसे ही परशुराम भूमि भी कहा जाता है।
  • यहां भगवान परशुराम की मूर्ति के साथ-साथ उनके शस्त्रों की भी पूजा होती है।
  • अक्षय तृतीया पर विशेष उत्सव होता है, जिसमें हजारों श्रद्धालु भाग लेते हैं।

2. महेन्द्रगिरि पर्वत (ओडिशा)

  • स्थान: गजपति जिला, ओडिशा
  • यह वही पर्वत है जहाँ परशुराम ने क्षत्रियों के संहार के पश्चात तपस्या का व्रत लिया था।
  • आज भी इसे उनका आध्यात्मिक निवास स्थान माना जाता है।
  • महेन्द्रगिरि क्षेत्र में परशुराम आश्रम और गुफाएं हैं, जहाँ साधु-संत आज भी तपस्या करते हैं।
  • यह तीर्थ दक्षिण भारत के सबसे दिव्य तपस्थलों में माना जाता है।

3. परशुराम कुंड – अरुणाचल प्रदेश

  • स्थान: लोहित जिला, अरुणाचल प्रदेश
  • यह तीर्थ स्थान पौराणिक कथा से जुड़ा है, जिसमें कहा जाता है कि माता रेणुका के वध के पश्चात भगवान परशुराम ने पश्चाताप स्वरूप स्नान करके अपने पापों का प्रायश्चित किया था।
  • यह कुंड ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी लोहित के किनारे स्थित है।
  • मकर संक्रांति के अवसर पर यहाँ पर हजारों श्रद्धालु स्नान के लिए आते हैं।

4. रेणुका झील – हिमाचल प्रदेश

  • स्थान: सिरमौर ज़िला, हिमाचल प्रदेश
  • यह झील परशुराम की माता रेणुका जी के नाम पर है।
  • झील के किनारे परशुराम मंदिर स्थित है जहाँ पुत्र परशुराम ने अपनी माता के वध के पश्चात प्रायश्चित किया था।
  • हर वर्ष “रेणुका मेला” आयोजित होता है जिसमें परशुराम और रेणुका माता की मूर्तियों का भव्य मिलन होता है।

5. परशुरामेश्वर मंदिर – भुवनेश्वर (ओडिशा)

  • स्थान: भुवनेश्वर शहर, ओडिशा
  • यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है, परंतु मान्यता है कि इस मंदिर में परशुराम ने भगवान शिव से परशु प्राप्त किया था
  • यह मंदिर 7वीं शताब्दी का है और प्राचीन स्थापत्य कला का उत्तम उदाहरण है।

6. परशुराम तीर्थ – गुजरात

  • स्थान: सोमनाथ के पास, सौराष्ट्र क्षेत्र
  • यह वह स्थान माना जाता है जहाँ भगवान परशुराम ने सोमनाथ शिवलिंग की स्थापना के बाद तपस्या की थी।
  • इस क्षेत्र में परशुराम से जुड़े कई स्मारक और तालाब भी स्थित हैं।

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