पापांकुशा एकादशी कथा
एक दिन हस्तिनापुर की राजसभा में शांत प्रकाश फैला हुआ था। धर्मराज युधिष्ठिर ने विनम्र होकर भगवान श्रीकृष्ण से पूछा—
“हे मधुसूदन, कृपा करके बताइए, आश्विन मास के शुक्ल पक्ष में कौन‑सी एकादशी आती है?”
श्रीकृष्ण मुस्कुराए और बोले— “हे राजन, उसी पक्ष में पापांकुशा नाम की एकादशी होती है। यह ऐसी तिथि है जो सब प्रकार के पापों को नष्ट कर देती है। इस दिन पद्मनाभ रूप से भगवान का पूजन करना चाहिए। जो मनुष्य संकल्पपूर्वक इसका व्रत करता है, उसे सम्पूर्ण वांछित फल प्राप्त होते हैं।”
कृष्ण बोले— “मनुष्य जितेन्द्रिय होकर वर्षों तक घोर तप करे और जो फल पाए, वही फल गरुड़‑ध्वज भगवान को नमस्कार करने से सहज मिल जाता है। अज्ञानवश जिसने बहुत पाप भी किए हों, यदि वह हरि को नमस्कार करे, उनके नाम का कीर्तन करे, तो वह घोर नरक में नहीं गिरता। इस पृथ्वी के जितने तीर्थ और पवित्र स्थान हैं, वे सब विष्णु‑नाम के कीर्तन से मानो समीप आ जाते हैं। जो शार्ङ्गधनुष धारण करने वाले भगवान विष्णु की शरण में जाता है, उस साधक को यमलोक का दर्शन तक नहीं होता। किंतु स्मरण रहे—जो वैष्णव होकर शिव की निन्दा करे, या शैव होकर विष्णु की निन्दा करे, वह निश्चय ही अधोगति को प्राप्त होता है।”
वे आगे बोले— “अनेक प्रकार के यज्ञों से भी बढ़कर एकादशी का सेवन है। जब तक मनुष्य एकादशी का पालन कर पद्मनाभ भगवान की आराधना नहीं करता, तब तक नरक‑यातना का बन्धन नहीं छूटता। और हे राजन, यदि किसी भी कारण से, किसी भी बहाने से एकादशी का व्रत हो जाए, तो भी वह पापों के नाश में सहायक होता है। गंगा, गया, पुष्कर, काशी, कुरुक्षेत्र आदि पुण्य तीर्थ भी हरिवासर—एकादशी के दिन—से कम नहीं, पर यह दिन उनसे भी बढ़कर महत्त्ववान बताया गया है। जो इस व्रत का पालन करता है, वह माता‑पक्ष, पिता‑पक्ष और पत्नी‑पक्ष—प्रत्येक की दस‑दस पीढ़ियों को तार देता है। वे सब चतुर्भुज, दिव्य रूप में, गरुड़‑ध्वज, पुष्पमाला और पीताम्बर धारण किए हरि के लोक को जाते हैं।”
इतना कहकर श्रीकृष्ण ने एक कथा सुनाई—
“विन्ध्य पर्वत पर ‘क्रोधन’ नाम का एक बहेलिया रहता था, बड़ा पापी। जीवन भर उसने पाप ही किए। जब मृत्यु निकट आई तो यमदूतों का भय उसे सताने लगा। कोई पुण्य‑कर्म उसने सँजोया ही न था; कुकर्मों ने उसे घेर रखा था। वह सोचने लगा—‘इन पापों से मुक्ति कैसे मिले?’
इसी उहापोह में एक दिन उसे एक संत का आश्रय मिला। संत की प्रेरणा से उसने पापांकुशा एकादशी का व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से उसे यम‑यातना भोगनी नहीं पड़ी। इस तिथि पर स्वर्ण, तिल, गौ, अन्न, जल, जूते, छाते आदि का यथाशक्ति दान करना कल्याणकारी है—ऐसा करने वाला यम के दर्शन से भी बचा रहता है।”
कृष्ण ने समझाया— “जिसका जीवन पुण्यहीन हो, उसका श्वास लोहार की धौंकनी के समान व्यर्थ चलता है। इसलिए, हे नरोत्तम, चाहे दरिद्र ही क्यों न हो, शक्ति के अनुसार स्नान, दान और सत्कर्म अवश्य करता रहे। अधर्म मनुष्य को दुर्गति की ओर ले जाता है और धर्म स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त करता है—यह अटल सत्य है।”
कथा का समापन करते हुए श्रीकृष्ण बोले— “इस प्रकार आश्विन शुक्ल पक्ष की पापांकुशा एकादशी का महात्म्य समझ लो। जो इसमें श्रद्धा रखकर व्रत‑उपासना करता है, उसे इच्छित फल मिलता है और कुल का भी कल्याण होता है।”
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