प्राचीन काल में मद्रदेश पर अश्वपति नामक एक धर्मनिष्ठ और परम ज्ञानी राजा का राज्य था। संतान की प्राप्ति हेतु उन्होंने अपनी पत्नी के साथ श्रद्धा और विधिपूर्वक सावित्री देवी का व्रत और पूजन किया। उनके इस सत्कर्म से देवी प्रसन्न हुईं और उन्हें एक कन्या प्राप्त हुई, जो रूप, गुण, शील और बुद्धि में अनुपम थी। उसका नाम भी सावित्री ही रखा गया।
वर चयन का समय
जब सावित्री विवाह योग्य हुई, तो राजा अश्वपति ने उससे कहा कि वह स्वयं अपने योग्य पति का चयन करे। राजा ने उसे इसके लिए देशाटन की आज्ञा दी। सावित्री ने घूमकर सत्यवान नामक युवक को अपना वर चुना।
उसी समय महर्षि नारद राजा अश्वपति के दरबार में पधारे। सावित्री ने श्रद्धा से उन्हें प्रणाम किया। जब नारद जी ने उससे उसके वर के बारे में पूछा, तो सावित्री ने उत्तर दिया—
“मैंने राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को अपना पति चुना है। उनका राज्य छिन चुका है, वे अंधे हैं और अब वन में जीवन यापन कर रहे हैं। सत्यवान उनका एकमात्र आज्ञाकारी और धर्मनिष्ठ पुत्र है।”
नारद जी ने विचार कर कहा—
“राजन्! आपकी पुत्री ने वास्तव में एक उत्तम वर चुना है। सत्यवान गुणवान, सत्यप्रिय और धर्मात्मा है। किंतु एक दोष है— वह अल्पायु है। एक वर्ष के भीतर, जब सावित्री बारह वर्ष की हो जाएगी, वह मृत्यु को प्राप्त होगा।”
सावित्री की अडिग निष्ठा
राजा यह सुनकर व्याकुल हो उठे और सावित्री से आग्रह किया कि वह किसी अन्य योग्य वर का चयन करे। किंतु सावित्री ने शांत, दृढ़ और विनम्र स्वर में कहा—
“पिताश्री! आर्य कन्याएँ जीवन में एक ही बार अपने पति का चयन करती हैं। मैंने मन, वचन और कर्म से सत्यवान को अपना पति स्वीकार किया है। अब चाहे वह अल्पायु हों या दीर्घायु, मैं किसी और को अपने हृदय में स्थान नहीं दे सकती।”
उसके दृढ़ संकल्प को देख राजा अश्वपति ने सत्यवान से सावित्री का विवाह कर दिया।
वनवास और नियति का समय
सावित्री अपने पति और सास-ससुर के साथ वन में रहने लगी और पूरे मन से उनकी सेवा करती रही। समय बीतता गया, और वह दिन समीप आ गया, जब सत्यवान की मृत्यु होने वाली थी। नारद जी के वचनों को स्मरण कर सावित्री चिंतित हो उठी। उसने तीन दिन का उपवास शुरू किया और निर्धारित तिथि पर पितरों का विधिवत पूजन भी किया।
उस दिन सत्यवान प्रतिदिन की भाँति लकड़ियाँ लाने जंगल गया। सावित्री ने सास-ससुर से आज्ञा ली और उसके साथ वन में चली गई।
वन में सत्यवान ने सावित्री को कुछ फल दिए और स्वयं एक वृक्ष पर चढ़कर लकड़ियाँ काटने लगा। तभी उसे तेज सिरदर्द हुआ और वह नीचे उतरकर सावित्री की गोद में लेट गया। उसका शरीर शिथिल हो गया।
यमराज से संवाद
उसी क्षण सावित्री ने देखा कि दक्षिण दिशा से यमराज प्रकट हुए और सत्यवान के प्राण लेकर चलने लगे। सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। यमराज ने उसे समझाया और लौट जाने को कहा, परंतु सावित्री ने विनम्रता से उत्तर दिया—
“हे धर्मराज! एक पतिव्रता स्त्री का धर्म यही है कि वह अपने पति की छाया बनकर हर परिस्थिति में उसका साथ निभाए। मैं पति का अनुसरण करना अपना धर्म मानती हूँ।”
सावित्री के वचनों से प्रसन्न होकर यमराज ने कहा—
“तुम अपने पति के प्राण को छोड़कर कोई भी वर मांग सकती हो।”
सावित्री ने सास-ससुर की दृष्टि और दीर्घायु का वरदान माँगा। यमराज ने “तथास्तु” कहा और आगे बढ़ गए।
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सतत निष्ठा और वरदान
फिर भी सावित्री उनका पीछा करती रही। यमराज ने उसे दोबारा वर मांगने को कहा। सावित्री ने कहा—
“मेरे सास-ससुर का खोया हुआ राज्य उन्हें वापस मिले और मैं सौ भाइयों की बहन बनूं।”
यमराज ने यह वर भी प्रदान कर दिया।
किन्तु सावित्री अब भी नहीं रुकी। तीसरी बार वर मांगने पर उसने कहा—
“यदि आप सचमुच मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे सौ पुत्रों की माता बनने का वर दीजिए।”
यमराज ने “तथास्तु” कहकर फिर आगे बढ़ना चाहा।
विवेक और धर्म की विजय
तभी सावित्री ने कहा—
“धर्मराज! आपने मुझे सौ पुत्रों की माता बनने का वरदान तो दिया है, परंतु क्या बिना पति के मैं संतान को जन्म दे सकती हूँ? यदि मुझे सौ पुत्रों की माँ बनना है तो मुझे पहले मेरा पति चाहिए।”
यह सुनकर यमराज सावित्री की पतिव्रत निष्ठा, उसकी बुद्धि और धर्मबुद्धि से अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने सत्यवान को जीवनदान दे दिया और अंतर्ध्यान हो गए।
जीवन की पुनः प्राप्ति
सावित्री वटवृक्ष के पास लौटी, जहाँ सत्यवान का शरीर निर्जीव पड़ा था। उसने वृक्ष की परिक्रमा की और जैसे ही पति के पास बैठी, सत्यवान में चेतना लौट आई। दोनों हर्षोल्लास से घर लौटे।
सत्यवान के माता-पिता की दृष्टि लौट आई थी और राजा द्युमत्सेन ने पुनः अपना राज्य प्राप्त कर लिया। वहीं, राजा अश्वपति को सौ पुत्रों की प्राप्ति हुई और सावित्री को सौ भाइयों की बहन होने का सौभाग्य मिला।
उपसंहार
इस प्रकार सावित्री ने अपने पतिव्रत धर्म का दृढ़ता और पूर्ण समर्पण से पालन करते हुए अपने पति को मृत्यु के मुख से वापस प्राप्त किया। उनके प्रेम, निष्ठा और धर्मपालन की यह कथा आज भी सनातन धर्म की स्त्रियों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है।
सावित्री और सत्यवान की अमर गाथा हमें यह सिखाती है कि धर्म, धैर्य, प्रेम और निष्ठा के बल पर जीवन की कठिन से कठिन परिस्थिति को भी बदला जा सकता है।
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