हिन्दू धर्म की त्रिमूर्ति में ब्रह्मा को सृष्टिकर्ता (Creator) के रूप में जाना जाता है। जहाँ भगवान विष्णु पालनकर्ता और भगवान शिव संहारकर्ता माने जाते हैं, वहीं ब्रह्मा इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड की उत्पत्ति का आधार माने जाते हैं। इस लेख में हम ब्रह्मा की उत्पत्ति, उनका स्थान, पूजा की प्रथा, प्रमुख मंदिर और आध्यात्मिक दृष्टिकोण को विस्तार से समझेंगे।

1. ब्रह्मा की उत्पत्ति कथा (विस्तृत विवरण) Lord Brahma

शास्त्रीय पृष्ठभूमि:

हिन्दू धर्म में ब्रह्मा को “सृष्टिकर्ता” (The Creator) के रूप में जाना जाता है। उन्हें त्रिमूर्ति (ब्रह्मा – विष्णु – महेश) का प्रथम अंग माना जाता है। किंतु ब्रह्मा स्वयं कैसे उत्पन्न हुए, यह प्रश्न सबसे पहले स्वयं श्रीमद्भागवत महापुराण और ब्रह्माण्ड पुराण में उठाया गया है।

कथा 1: विष्णु की नाभि से कमल और ब्रह्मा का प्रकट होना (भगवद पुराण आधारित)

श्रीमद्भागवत पुराण (स्कंध 3, अध्याय 8–9) के अनुसार सृष्टि की शुरुआत के समय कुछ भी नहीं था – केवल निराकार परमात्मा (परब्रह्म) का अस्तित्व था। उसी ब्रह्म से भगवान विष्णु प्रकट हुए, जिन्होंने अनंतकाल तक क्षीरसागर में शेषनाग पर विश्राम किया।

कुछ समय बाद, उनकी नाभि से एक दिव्य कमल प्रकट हुआ, जिसकी डंडी अत्यंत लंबी थी। इस कमल के ऊपर ही ब्रह्मा का प्राकट्य हुआ। इस कारण ब्रह्मा को “नाभिकमलज” या “पद्मयोनि” भी कहा जाता है।

ब्रह्मा के प्रकट होते ही उनके मन में यह जानने की इच्छा जागृत हुई कि उनका जन्म कैसे और किससे हुआ। वे कमल डंठल के आधार तक जाने के लिए नीचे उतरे, पर उन्हें कुछ नहीं मिला। तब उन्होंने तपस्या की और ध्यान किया, जिससे उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त हुआ कि वे भगवान विष्णु से उत्पन्न हुए हैं और उन्हें ही सृष्टि निर्माण का कार्य सौंपा गया है।

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कथा 2: ब्रह्मा का प्राकट्य – सत्वगुण से (वेदान्तिक दृष्टिकोण)

सांख्य दर्शन और वेदांत के अनुसार, त्रिगुणात्मक प्रकृति के तीन गुण होते हैं — सत्व, रज और तम। इन्हीं से सृष्टि की प्रक्रिया शुरू होती है। ब्रह्मा रजोगुण से उत्पन्न होते हैं (जो क्रिया और सृजन का प्रतीक है), विष्णु सत्त्वगुण से (पालन का कार्य), और शिव तमोगुण से (संहार का कार्य)। यह त्रिगुणात्मक दृष्टिकोण भी सृष्टि के आरंभ की व्याख्या करता है।

कथा 3: ब्रह्मा स्वयंभू हैं — ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार

कुछ शास्त्रों में ब्रह्मा को “स्वयंभू” भी कहा गया है। अर्थात् उन्होंने स्वयं को ही उत्पन्न किया। इस कथा के अनुसार आदि में केवल ब्रह्म ही थे – वे ही एक सागर रूप में थे। जब इच्छा उत्पन्न हुई, तो उन्होंने स्वयं से ब्रह्मा को प्रकट किया। फिर उन्होंने मनु, प्रजापति, सप्तर्षियों, देवताओं, ऋषियों और अन्य लोकों की रचना प्रारंभ की।

ब्रह्मा के चार मुख और वेदों की उत्पत्ति

ब्रह्मा के चार मुख हैं – पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। हर मुख से एक वेद उत्पन्न हुआ:

  • ऋग्वेद
  • यजुर्वेद
  • सामवेद
  • अथर्ववेद

इसलिए ब्रह्मा को “वेदमूर्ति” भी कहा जाता है। चारों दिशाओं की ओर देखकर सृष्टि को संतुलन और ज्ञान प्रदान करना उनका उद्देश्य था।

उत्पत्ति के बाद सृष्टि की शुरुआत:

ब्रह्मा ने सबसे पहले “मानस पुत्रों” की रचना की — जैसे मरीचि, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, वशिष्ठ, भृगु, अंगिरा आदि। फिर उन्होंने सप्तर्षि, मनु, प्रजापति, असुर, देव, यक्ष, गंधर्व, नाग, मनुष्य और स्त्रियों की उत्पत्ति की। इस प्रकार उन्होंने समस्त चर और अचर जगत की रचना की।

शुद्धता और प्रमाणिकता की पुष्टि:

स्रोत ग्रंथसंदर्भ भूमिका
श्रीमद्भागवत महापुराणस्कंध 3, अध्याय 8–9: विष्णु की नाभि से ब्रह्मा की उत्पत्ति
विष्णु पुराणअध्याय 1.2–1.3: ब्रह्मा का सृजन कार्य
ब्रह्माण्ड पुराणअध्याय 1.1–1.5: स्वयंभू ब्रह्मा का वर्णन
मत्स्य पुराणअध्याय 2: ब्रह्मा की तपस्या और वेदों की उत्पत्ति
वेद (अथर्ववेद)मण्डल 10: सृष्टि के पूर्व की अवस्था

2. ब्रह्मा, विष्णु, महेश — त्रिमूर्ति में ब्रह्मा का स्थान (विस्तृत विवेचन)

त्रिमूर्ति क्या है?

हिन्दू धर्म में ब्रह्मांडीय व्यवस्थाओं के संचालन हेतु परमब्रह्म (निराकार ईश्वर) की तीन सगुण अभिव्यक्तियाँ मानी जाती हैं:

  1. ब्रह्मा – सृष्टि के निर्माता (The Creator)
  2. विष्णु – सृष्टि के पालक (The Preserver)
  3. महेश (शिव) – सृष्टि के संहारक (The Destroyer)

इन तीनों को मिलाकर “त्रिमूर्ति” कहा जाता है, और ये तीनों एक ही परम तत्व (ब्रह्म) के विभिन्न कार्यकारी स्वरूप हैं। यह अवधारणा विशेष रूप से ब्रह्माण्ड पुराण, शिवपुराण, विष्णु पुराण, तथा श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णित है।

त्रिमूर्ति की आवश्यकता क्यों?

संपूर्ण ब्रह्मांड अनित्य (क्षणभंगुर) है। यह सृष्टि–स्थिति–संहार की निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है:

  • सृष्टि (Creation): नए प्राणियों, लोकों और तत्वों की रचना — यह कार्य ब्रह्मा का है।
  • स्थिति (Preservation): रचित वस्तुओं और जीवन का पालन–पोषण — यह कार्य विष्णु का है।
  • संहार (Destruction): समय आने पर रूपांतरण या विनाश — यह कार्य शिव का है।

इन तीनों प्रक्रियाओं से ही संसार चक्र (Cosmic Cycle) संचालित होता है।

ब्रह्मा का स्थान: सृष्टिकर्ता की भूमिका

ब्रह्मा को “सृष्टिकर्ता” (The Creator) कहा जाता है। वे साक्षात रचना शक्ति के प्रतीक हैं। उनकी भूमिका का विस्तार इस प्रकार है:

  1. सृष्टि के आरंभ में वे सबसे पहले प्रकट हुए त्रिदेवों में से एक हैं।
  2. उन्होंने लोकों की रचना की – स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल, सप्तलोक आदि।
  3. उन्होंने सबसे पहले अपने “मानस पुत्रों” की रचना की — ये ऋषि, प्रजापति, सप्तर्षि आदि हैं।
  4. उन्होंने मनु और शतरूपा को उत्पन्न किया, जो मानव जाति के आदि माता-पिता माने जाते हैं।
  5. ब्रह्मा के चार मुखों से चार वेद निकले — वेदज्ञान का स्रोत वही हैं।

इसलिए उन्हें “विद्या का मूल स्रोत” और “ज्ञान का आदिदाता” भी कहा गया है।

ब्रह्मा, विष्णु, महेश — कार्यात्मक तुलना (तत्वमीमांसा के आधार पर):

कार्यब्रह्माविष्णुमहेश (शिव)
प्रधान गुणरजोगुण (क्रिया)सत्त्वगुण (संतुलन)तमोगुण (विनाश/गहनता)
कार्यसृष्टि (Creation)स्थिति (Preservation)संहार (Destruction)
स्थानब्रह्मलोक (सत्यलोक)क्षीरसागरकैलास
वाहनहंसगरुड़नंदी (बैल)
प्रतीकवेद, कमंडलु, मालाशंख, चक्र, गदात्रिशूल, डमरू
पत्नीसरस्वतीलक्ष्मीपार्वती

शास्त्रीय दृष्टिकोण: Lord Brahma

श्रीमद्भागवत महापुराण, ब्रह्मसूत्र, गीता, शिवमहापुराण आदि ग्रंथ यह स्पष्ट करते हैं कि:

  • ब्रह्मा, विष्णु, शिव वास्तव में तीन नहीं, एक ही परम ब्रह्म के तीन रूप हैं।
  • एक ही शक्ति (अद्वैत ब्रह्म) विभिन्न कार्य हेतु अलग-अलग रूपों में प्रकट होती है।
  • गीता (अध्याय 10) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: “अहमादिर्हि देवानाम्” — अर्थात मैं ही देवताओं का आदि रूप हूँ।

एक दृष्टांत — ब्रह्मा, विष्णु, शिव का परस्पर सम्मान

स्कंद पुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार, एक बार ब्रह्मा और विष्णु में श्रेष्ठता की होड़ लगी। तभी एक अनंत अग्निस्तंभ (शिवलिंग रूप) प्रकट हुआ, जिसकी न आदि दिखाई दी, न अंत। दोनों देवताओं ने उसे जानने का प्रयास किया — पर असफल रहे।

तभी भगवान शिव प्रकट हुए और बोले: “जो इस अग्निस्तंभ की सीमा नहीं जान सकता, वह मेरे रूप को नहीं जान सकता।” इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि त्रिदेव एक-दूसरे के पूरक हैं और किसी को श्रेष्ठ या न्यून नहीं कहा जा सकता।

ब्रह्मा की भूमिका की सीमाएँ:

शिवपुराण व अन्य ग्रंथों के अनुसार:

  • ब्रह्मा केवल एक कल्प (ब्रह्मा का एक दिन) तक ही जीवित रहते हैं।
  • प्रत्येक कल्प में एक नए ब्रह्मा का प्राकट्य होता है (यानी हर ब्रह्मा भिन्न होता है)।
  • विष्णु और शिव को अनादि-अनंत माना गया है — जबकि ब्रह्मा को एक सीमित कार्यकाल वाला पद।

3. क्यों ब्रह्मा की पूजा कम होती है? (पूर्ण विश्लेषण)

1.पौराणिक कारण: ब्रह्मा का झूठ बोलना और शिव का शाप

पुराणों के अनुसार एक अत्यंत प्रसिद्ध कथा इस विषय में महत्वपूर्ण मानी जाती है। एक बार ब्रह्मा और विष्णु में यह विवाद हुआ कि सृष्टि में सबसे श्रेष्ठ और सर्वोपरी कौन है। तभी अग्निरूप में एक अनंत तेजोस्तंभ (शिवलिंग) प्रकट हुआ, जो न आदि दिखाई दे रहा था और न अंत। शिवजी ने कहा – “जो इसका आदि या अंत खोज कर आएगा, वही सर्वश्रेष्ठ माना जाएगा।”

  • विष्णु भगवान ने नीचे की ओर जाकर अंत खोजने की कोशिश की (वराह रूप में), लेकिन असफल हुए।
  • ब्रह्मा जी ने ऊपर की दिशा में प्रयाण किया। जब उन्हें कोई आदि नहीं मिला, तो उन्होंने केतकी के फूल से झूठ बुलवाया कि “मैं आदि तक पहुँच गया।”

शिव ने यह कपट देख लिया और प्रकट होकर क्रोधित हुए। उन्होंने ब्रह्मा को यह श्राप दिया: “तुम झूठ बोले हो। इस कारण तुम्हारी पृथ्वी पर कभी पूजा नहीं होगी।”

👉 यह घटना ब्रह्मा की पूजा में कमी का मुख्य कारण बताई जाती है।

2.मंदिरों की दुर्लभता

भारत भर में ब्रह्मा के मंदिरों की संख्या बहुत ही कम है। सबसे प्रसिद्ध मंदिर राजस्थान के पुष्कर में स्थित है, जो विश्व का एकमात्र प्रमुख ब्रह्मा मंदिर माना जाता है। अन्य देवताओं जैसे शिव, विष्णु, गणेश, लक्ष्मी, दुर्गा के लाखों मंदिर हैं, परंतु ब्रह्मा के मंदिर ना के बराबर हैं। इसका एक कारण यह भी माना जाता है कि जब किसी देवता की नियमित पूजा न हो, तो उनकी लोकधारणा भी कम होती है।

3.कर्म की पूर्णता के बाद ब्रह्मा की भूमिका सीमित

हिन्दू धर्म में ब्रह्मा को सृष्टिकर्ता माना गया है – वे सृजन करते हैं, लेकिन उसका पालन (विष्णु) और संहार (शिव) अन्य देव करते हैं। ब्रह्मा का कार्य एक चक्र के प्रारंभ में सीमित होता है। उसके बाद वे ‘योगनिद्रा’ या ध्यान में चले जाते हैं। इस कारण उनका भक्तों से सीधा संबंध नहीं बनता, जैसा शिव या विष्णु के अवतारों के साथ होता है।

4.ब्रह्मा जी के संकल्प की परीक्षा (पुष्कर कथा)

पुष्कर ब्रह्मा मंदिर की कथा के अनुसार ब्रह्मा ने एक यज्ञ करने की तैयारी की, जिसमें उनकी पत्नी सरस्वती को समय पर पहुँचना था। वह देरी से आईं, और समय पर यज्ञ पूरा करने के लिए ब्रह्मा ने गायत्री नामक कन्या से विवाह कर लिया और यज्ञ पूरा कर लिया। जब सरस्वती पहुँचीं, तो वह क्रोधित हो गईं और श्राप दे दिया – “इस स्थान को छोड़कर किसी और स्थान पर तुम्हारी पूजा नहीं होगी।”

👉 इस श्राप को भी ब्रह्मा की पूजा में कमी के एक पौराणिक कारण के रूप में स्वीकार किया गया है।

5.भक्तिकाल और लोकचेतना में स्थान की कमी

  • भक्तिकाल के संतों (जैसे तुलसीदास, सूरदास, कबीर) ने विष्णु, राम, कृष्ण, शिव को प्रमुख रूप से वर्णित किया।
  • ब्रह्मा जी की लीलाएँ या चमत्कारी प्रसंग कम बताए गए, जिससे भक्तों में उनके प्रति श्रद्धा का संचार सीमित रहा।

6. दार्शनिक दृष्टिकोण से भी अंतर

  • ब्रह्मा को रजोगुण (सृजन का गुण) का अधिष्ठाता माना जाता है, जबकि शिव (तमोगुण – संहार) और विष्णु (सत्त्वगुण – पालन) से भक्तगण जीवन की समस्याओं में अधिक सहायता की अपेक्षा करते हैं।
  • इसलिए लोग उन देवों की पूजा अधिक करते हैं, जिनसे वे जीवन के भय, संकट, या सुख-दुख के समाधान की अपेक्षा रखते हैं।

7.आधुनिक धार्मिक जागरूकता में स्थान की कमी

  • आधुनिक हिन्दू धर्म में जब किसी बच्चे को देवताओं से परिचित कराया जाता है, तो राम, कृष्ण, शिव, गणेश, दुर्गा जैसे देवों का वर्णन प्रमुखता से किया जाता है।
  • ब्रह्मा की कथा या पूजा की परंपरा उतनी बार-बार दोहराई नहीं जाती, जिससे आने वाली पीढ़ियों में भी उनकी पूजा प्रवृत्त कम रही है।

ब्रह्मा जी हिन्दू धर्म में त्रिमूर्ति का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं और उनकी भूमिका अमूल्य है – सृजन के लिए वे आवश्यक हैं। लेकिन पौराणिक श्राप, मंदिरों की कमी, भक्तिकाल की उपेक्षा, और दार्शनिक कारणों से उनकी पूजा सीमित रही है। फिर भी, हिन्दू दर्शन में ब्रह्मा को पूर्ण श्रद्धा और सम्मान प्राप्त है – वे सृष्टि के मूल बीज के रूप में पूजनीय हैं।

4.प्रमुख मंदिर (जैसे पुष्कर ब्रह्मा मंदिर):


भारत में ब्रह्मा के बहुत कम मंदिर हैं, और उनमें से सबसे प्रसिद्ध है राजस्थान के अजमेर जिले के पुष्कर में स्थित ब्रह्मा मंदिर। यह विश्व का एकमात्र प्रमुख मंदिर है जहाँ ब्रह्मा की विधिवत पूजा होती है। पुष्कर मंदिर में ब्रह्मा जी की चारमुखी मूर्ति स्थापित है। यह मंदिर विशेष रूप से कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर श्रद्धालुओं से भर जाता है, जब पुष्कर मेला भी आयोजित होता है। अन्य कुछ दुर्लभ स्थानों पर भी ब्रह्मा के मंदिर हैं, जैसे तेलंगाना, केरल और तमिलनाडु में।

5.निष्कर्ष और आध्यात्मिक दृष्टिकोण:

ब्रह्मा सृष्टि के मूल कारण हैं—उनके बिना जगत की कल्पना नहीं की जा सकती। वे ज्ञान और सृजनात्मकता के प्रतीक हैं। भले ही उनकी पूजा की परंपरा सीमित हो, लेकिन उनका धार्मिक और दार्शनिक महत्व अपरिमित है।

आध्यात्मिक दृष्टि से ब्रह्मा हमारे भीतर की सृजनात्मक शक्ति और ज्ञान के प्रतीक हैं। यदि हम अपने जीवन में सृजन, नवाचार और ज्ञान का समावेश करें, तो वास्तव में ब्रह्मा की आराधना करते हैं।

इस प्रकार, ब्रह्मा केवल एक पुराण पात्र नहीं बल्कि चेतना की वह शक्ति हैं जो हमें रचनात्मकता, नई शुरुआत और आत्मबोध की ओर प्रेरित करती है।)


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