शैल, शक्ति और शैलपुत्री
भारतीय पुराण‑परंपरा में देवी की असंख्य उपाधियाँ और रूप वर्णित हैं। उन्हीं में से एक अत्यंत लोकप्रिय और आर्द्र कर देने वाला नाम है—शैलपुत्री, अर्थात पर्वत (शैल) की पुत्री। यह उपाधि भगवान् शिव की अर्धांगिनी पार्वती (हैमवती, गिरिजा, उमा) की है, जिनका जन्म हिमवान (हिमालय) और मेना (मैना) के यहाँ हुआ बताया गया है। शाक्त और वैदिक‑पुराणिक वाङ्मय में यह कथा व्यापक रूप से प्रवाहित है—शिवपुराण, देवीभागवत पुराण, स्कन्दपुराण और मार्कण्डेय पुराण (देवीमाहात्म्य) में देवी‑महिमा के विविध प्रसंगों द्वारा।
यह जीवन‑चरित केवल पुराणाधारित प्रस्तुति है—जहाँ आधुनिक व्याख्याएँ, ज्योतिषीय रंग, तिथि‑निर्धारण या लोकाचार की बाद की परंपराएँ सम्मिलित किए बिना मूल पुराणकथाओं के तंतु जोड़े गए हैं। उद्देश्य है कि पाठक माँ शैलपुत्री के अवतरण, उनके नाम‑निरूक्त, स्वरूप, तप, तथा शिव से परम ऐक्य के पौराणिक संदर्भों को एक ही स्थान पर प्रामाणिक रूप से समझ सकें।
नाम‑निरुक्ति: ‘शैलपुत्री’ क्यों?
संस्कृत में ‘शैल’ का अर्थ पर्वत और ‘पुत्री’ का अर्थ कन्या है। हिमालय‑राज को पुराणों में हिमवान, हिमाचल, गिरिराज आदि नामों से संबोधित किया गया है, और उनकी पुत्री होने से पार्वती को शैलपुत्री, हैमवती (हिमवान की पुत्री), तथा गिरिजा (गिरि = पर्वत + जा = जन्मी) कहा गया। यह उपाधि उनकी उत्पत्ति और स्वभाव—अचल, धैर्यवान, तपोनिष्ठ—दोनों की ओर संकेत करती है।
पूर्वजन्म की स्मृति: सती‑कथा का संक्षिप्त संदर्भ (शिवपुराण‑समर्थित)
पुराणों में देवी के बहु‑आयामी रूप की चर्चा में सती‑कथा मूलधारा है। दक्ष की कन्या सती का विवाह भगवान् शिव से हुआ। आगे चलकर दक्ष ने एक महायज्ञ का आयोजन किया, जिसमें शिव का अपमान और अनादर किया गया। आहत सती ने वहाँ आत्म‑त्याग कर दिया। इस प्रसंग के विस्तार—विरभद्र और भद्रकाली के आविर्भाव, यज्ञ‑विध्वंस, और दक्ष का जीवनदान—का विशद वर्णन शिवपुराण तथा अन्य पुराणों में उपलब्ध है।
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देवी की करुणा और जगत‑कल्याण हेतु वही शक्ति पुनः अवतीर्ण होती हैं—यही शैलपुत्री रूप का आधार है। अर्थात, सती की ही पुनर्जन्मा पार्वती—हिमवान‑कन्या—जो आगे चलकर शिव के साथ पुनः परम ऐक्य प्राप्त करती हैं। इस प्रकार शैलपुत्री‑कथा, सती‑कथा से अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध है।
जन्म: हिमवान‑कन्या पार्वती (देवीभागवत, शिवपुराण, स्कन्दपुराण)
पुराणों के अनुसार हिमवान (हिमालय) को ‘पर्वतराज’ की उपाधि प्राप्त है। उनकी पत्नी मेना (या मैना, कई स्थानों पर मेना), मेरु की कान्ता मानी गई हैं। इन्हीं के यहाँ देवी का अवतरण पार्वती के रूप में हुआ—यही शैलपुत्री हैं।
- ‘गिरिजा’ उपाधि—पर्वत की गोद में ‘जन्मी’ होने का काव्यात्मक संकेत।
- ‘हैमवती’—हिमवान की पुत्री होने का द्योतक।
- ‘उमा’—विभिन्न पुराणों में प्रयुक्त नाम, जिनसे उनकी सौम्यता, करुणा और प्रकाश का बोध होता है।
शिव‑वियोग की करुण गाथा के बाद जगत‑तन्त्र के संतुलन हेतु यह अवतरण आवश्यक था। पुराण‑कथाओं में हिमालय‑कुल का वर्णन शुद्धता, तप और देवोपासना की भावभूमि के रूप में मिलता है—इसी संस्कारभूमि में देवी का बचपन बीतना कथानक का स्वाभाविक विस्तार है।
बाल्य‑लीलाएँ और देवतानिष्ठा
यद्यपि शैलपुत्री की बाल्य‑लीलाओं का विस्तार सभी पुराणों में समान रूप से नहीं मिलता, तथापि देवी की दिव्य‑स्वरूपता, देवताभक्ति और प्रकृतिप्रेम के बिखरे प्रसंग संकेत देते हैं कि वे आरम्भ से ही शिव‑तत्त्व की ओर आकृष्ट थीं। स्कन्दपुराण और देवीभागवत पुराण में हिमालय‑कुल की शुचिता और देवी के तेज के निरूपण से यही भाव पुष्ट होता है—कि उनका अवतरण नियत उद्देश्य लेकर हुआ है।
तपस्या: शिव‑प्रेम का परम व्रत (शिवपुराण, देवीभागवत)
शिवपुराण (विशेषतः रुद्रसंहिता के पार्वती‑खण्ड में) पार्वती की दीर्घ‑तपस्या का सजीव वृत्तांत देता है। वे इस संकल्प के साथ तप करती हैं कि वे शिव को ही पति रूप में प्राप्त करेंगी। पर्वतराज हिमालय और मेना का मातृत्व‑स्नेह, नारदादि ऋषियों का मार्गदर्शन, तथा देवराज इन्द्र सहित देवों की मंगल‑कामनाएँ—ये सब प्रसंग इस तप के चारों ओर गुंथे हैं।
तप का वैभव इतना दीर्घ‑गहन है कि अनेक स्थानों पर देवी को ‘अपर्णा’ (जिन्होंने पत्र—पत्ते तक—न ग्रहण किया) भी कहा गया। यह तत्त्व वैराग्य और अचल संकल्प का प्रतीक है—यही शैल (पर्वत) के स्वभाव का दिव्य प्रतिबिम्ब भी है।
शिव‑विवाह: ब्रह्माण्डिक संतुलन की पुनर्स्थापना
पुराण‑कथाओं का शिखर प्रसंग है—देवी पार्वती का शिव से पुनर्मिलन। ऋषियों के उपदेश, देवताओं के विघ्न‑निवारण, और स्वयं शिव के तप‑स्वरूप के कथानकों के बीच यह विवाह होता है। हिमालय पर आयोजित यह दिव्य विवाह केवल दैव‑युगल का ऐक्य ही नहीं, बल्कि सृष्टि‑तन्त्र में सौंदर्य और संतुलन की पुनर्स्थापना का भी प्रतीक है। इसी परिणति में सती‑वियोग का घाव भरता है और शैलपुत्री अपने शाश्वत स्वामि महादेव के साथ लोक‑कल्याणकारी लीला का आरंभ करती हैं।
‘नवदुर्गा’ परंपरा में शैलपुत्री का स्थान (देवीभागवत‑समर्थित)
देवीभागवत पुराण में देवी के अनेक रूपों और उनकी पूजा‑पद्धतियों का उल्लेख है। शाक्त‑सम्प्रदाय की परंपरा में जिन नवदुर्गाओं का व्यापक वंदन होता है, उनमें शैलपुत्री को प्रथम रूप के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। यह प्रतिष्ठा देवी के आदिशक्ति‑स्वरूप और जन्म‑उद्गम (पर्वत‑कन्या) की शुचिता से अनुप्राणित समझी जाती है।
यहाँ ध्यान रहे कि यह शास्त्रीय‑परंपरागत प्रतिष्ठा पुराणों के देवी‑तत्त्व के समग्र निरूपण से सन्नद्ध होकर आई है; इसमें लोकाचार, वर्णनशैली, स्तुति‑दोहों और ध्यान‑श्लोकों का योगदान भी शताब्दियों में जुड़ता रहा है। किन्तु शैलपुत्री = हिमवान‑कन्या पार्वती और उनका शिव‑विवाह‑संकल्प—ये दोनों बिंदु पुराणों में सर्वथा समर्थित हैं।
स्वरूप‑वर्णन: नाम, उपाधियाँ और परंपरागत रूपांकन
पुराणों में पार्वती की उपाधियाँ—उमा, गौरी, गिरिजा, हैमवती, भवानी—प्रचलित हैं। शैलपुत्री के रूप में उनकी निम्नलिखित विशेषताएँ परंपरागत रूप से वर्णित/अंकित मिलती हैं:
- वृषवाहना का संकेत: शिव‑परिवार का नन्दी (वृषभ) से अविच्छेद्य सम्बंध पुराणों में प्रसिद्ध है; शैलपुत्री के रूप में देवी का वृषवाहना‑संकेत शैव‑परंपरा की इसी निरंतरता का काव्यात्मक रूपांकन माना जाता है।
- आयुध‑संकेत: त्रिशूल और पुष्प (पद्म) जैसे आयुध/अलंकार देवी‑वैभव के प्रतीक रूप में पुराण‑उत्तर काव्य, स्तुतियों और ध्यान‑वर्णनों में प्रचलित हैं। मूल पुराण‑वृत्त में इनका अर्थ—संहार एवं सृजन‑शक्ति का संतुलन—रूपक के रूप में ग्रहण किया जाता है।
टिप्पणी (शुद्धता‑निर्देश): इस लेख में सटीक आइकनोग्राफी के वे विवरण नहीं दिए जा रहे जिनका प्रत्यक्ष पाठ‑स्थ (पुराण‑पाठ) में उल्लेख अस्पष्ट/अनुपलब्ध है। हमने केवल वही तत्त्व सामने रखे हैं जिनका बीज पुराण‑कथाओं, देवी‑महिमा‑स्तवों और शैव‑शाक्त परंपरा से प्रमाणित संबंध है।
शैव‑शाक्त समन्वय: शैलपुत्री का दार्शनिक संकेत
पुराण‑कथाओं का एक मौलिक सूत्र है—शिव और शक्ति का अभिन्न ऐक्य। सती‑वियोग और शैलपुत्री‑अवतरण का परस्पर‑पूरक प्रसंग हमें बताता है कि शक्ति बिना शिव निष्क्रिय हैं और शिव बिना शक्ति शव‑तुल्य—यह केवल तर्क नहीं, बल्कि ब्रह्माण्डिक व्यवस्था का रहस्य है।
शैलपुत्री का ‘शैल’—अचलता, धैर्य, तप—और ‘पुत्री’—कोमलता, स्निग्धता, करुणा—दोनों मिलकर देवी‑स्वरूप में स्थैर्य‑प्रेम का समन्वय रचते हैं। इसी समन्वय से वैराग्य (अपर्णा) और गृहस्थ‑धर्म (शिव‑विवाह) का दिव्य संतुलन सामने आता है—जो मानव‑जीवन के लिए भी आदर्श संकेत है।
पुराण‑कथाओं में हिमालय‑कुल और प्रभु‑दूत
शैलपुत्री‑कथा में हिमालय‑कुल के कई पात्र आते हैं:
- हिमवान (हिमालय): शुचिता और तप का प्रतीक, जो पुत्री की तपस्या में भी धार्मिक विवेक का साथ देता है।
- मेना (मैना): मातृत्व‑ममत्व का रूप, जो कठोर तप के बीच पुत्री के आरोग्य और मंगल की चिन्ता करती हैं।
- नारद: पुराण‑कथाओं में देवी‑मार्गदर्शक रूप में, जो धर्म, दार्शनिकता और उपयुक्त व्रत‑विधान का संकेत देते हैं।
- देवराज इन्द्र एवं देवगण: जो ब्रह्माण्डिक संतुलन के लिए देवी के संकल्प में समर्थन देते हैं।
ये चरित्र शैलपुत्री‑जीवन‑चरित में मानवीय और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर भाव‑विस्तार का साधन हैं—जहाँ पिता‑माता का स्नेह, ऋषि‑मार्गदर्शन और देव‑आशीर्वचन—तीनों का सामंजस्य दिखता है।
लोक‑पूज्य कथानक, परन्तु पाठ‑आधार की सावधानी
समय के साथ लोकपरंपराओं में नवरात्र आदि उत्सवों द्वारा शैलपुत्री‑पूजन की प्रचुरता रही है। किंतु इस लेख का उद्देश्य केवल पुराणाधारित निरूपण करना है; अतः यहाँ किसी आधुनिक‑व्रत, रंग‑विधान या विशेष प्रसाद/नैवेद्य का उल्लेख नहीं किया जा रहा—क्योंकि उनके मूल, यदि सीधे पुराण‑पाठ से अप्रत्यक्ष हों, तो शास्त्रीय शुद्धता के आग्रह से उन्हें यहाँ टालना ही उचित है।
हाँ, इतना अवश्य शास्त्र‑सम्मत है कि देवी‑स्तुति, जप, पाठ और ध्यान—जैसे देवीमाहात्म्य (मार्कण्डेय पुराण) के स्तोत्र—शाक्त साधना में प्रमुख हैं, और शैलपुत्री‑रूप की वन्दना भी इसी देवी‑तत्त्व की अखंड आराधना का अंग है।
देवीमाहात्म्य (मार्कण्डेय पुराण) और शैलपुत्री‑तत्त्व
देवीमाहात्म्य में देवी को जगत‑जननी, मायाशक्ति, सर्वव्यापिनी रूप में स्तुत किया गया है—“या देवी सर्वभूतेषु…” से लेकर अनेक सूक्तों में। यद्यपि यहाँ ‘शैलपुत्री’ नाम का प्रत्यक्ष स्मरण सभी पाठ‑स्थलों पर न हो, तथापि देवी का यह प्रकृति‑स्वरूप—जो पर्वत की स्थिरता और मातृ‑करुणा को संग्रथित करता है—कथा‑विषयक संकेत अवश्य देता है। इस प्रकार देवीमाहात्म्य शैलपुत्री‑तत्त्व की दार्शनिक पुष्टि के रूप में देखा जा सकता है।
शिवपुराण में पार्वती‑चरित: शैलपुत्री का जीवंत विस्तार
शिवपुराण के रुद्र‑संहिता में सती‑खण्ड और पार्वती‑खण्ड—दोनों मिलकर शैलपुत्री‑जीवन‑चरित की प्राण‑रेखा खींचते हैं। सती‑वियोग के पश्चात् हिमालय‑कुल में पार्वती का अवतरण, उनका तप‑व्रत, और अंततः शिव‑विवाह—यह सब अत्यंत भावुक किन्तु दार्शनिक रूप से सुसंगत है।
इस प्रसंग में कई स्थानों पर नारद और हिमवान के संवाद—धर्म‑तत्त्व, गृहस्थ‑धर्म, तप और दैवी संकल्प—इन चारों की परस्पर‑पूरकता समझाते हैं। शैलपुत्री का व्यक्तित्व यहाँ करुणा‑स्निग्ध, धैर्य‑अटल और ज्ञान‑पोषित दिखता है—जो आगे चलकर अन्नपूर्णा, गौरी, दुर्गा आदि रूपों के वैभव के लिये आधारभूमि बनता है।
स्कन्दपुराण और हिमालय‑महात्म्य
स्कन्दपुराण—जो अत्यन्त विस्तृत है—हिमालय, तीर्थ‑परंपरा, और देव‑चरित के अनगिनत प्रसंगों का कोश है। हिमालय‑महात्म्य के प्रसंगों में हिमवान‑कुल की शुचिता, सत्कर्म और तप का जो उच्च आदर्श प्रस्तुत होता है, वह शैलपुत्री‑कथा की धर्मभूमि को पुष्ट करता है—कि देवी का जन्म इसी कुल में क्यों उपयुक्त और अनिवार्य था।
देवीभागवत पुराण: शक्ति‑तत्त्व का समग्र दृश्य
देवीभागवत पुराण शाक्त‑सम्प्रदाय का एक प्रमुख ग्रन्थ है, जहाँ देवी के अवतार, उपासना‑विधान, व्रत‑नियम और महात्म्य का समन्वित वर्णन है। नवदुर्गा‑परंपरा का जो तांत्रिक‑शाक्त विस्तार लोक में प्रसिद्ध है, उसके शास्त्रीय सूत्र यहाँ मिलते हैं—यहीं से शैलपुत्री का प्रथम‑रूप वाला मान भी परंपरा में सुस्थिर होता है।
ध्यान रहे कि देवीभागवत का आशय केवल अनुष्ठानिक निर्देश नहीं, बल्कि देवी‑तत्त्व की दार्शनिक परिभाषा भी है—जहाँ शक्ति को सृष्टि‑स्थिति‑संहार के त्रिविध कार्य में ब्रह्म‑स्वरूप माना गया है। शैलपुत्री‑रूप इसी मातृ‑स्वरूप और अचल संकल्प का सहज प्रतीक है।
शैलपुत्री से शिक्षा: तप, संयम और करुणा का संगम
शैलपुत्री‑जीवन‑चरित हमें तीन प्रमुख सूत्र देता है—
- अचल संकल्प (धैर्य): पर्वत की भाँति अडिग रहकर धर्म‑संकल्प निभाना। पार्वती का तप इसी का आदर्श है।
- संयम और साधना: ‘अपर्णा’‑भाव हमें भीतर की इच्छाओं पर विजय और आत्मनिष्ठा का पाठ पढ़ाता है।
- करुणा और गृहस्थ‑धर्म: शिव‑विवाह के बाद देवी का लोक‑कल्याणकारी रूप बताता है कि तप का लक्ष्य संन्यास भर नहीं, बल्कि संसार‑हित भी है।
ये तीनों सूत्र पुराण‑कथा से उपजे हुए अनुभव‑सिद्ध आदर्श हैं—जो आधुनिक जीवन में भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने कि प्राचीन ऋषि‑परंपरा में थे।
स्तुति और वन्दना: पुराण‑पाठ से प्रेरित भाव
यद्यपि विशिष्ट ‘शैलपुत्री‑मन्त्र’ के रूप में हर पाठ‑स्थ पर एकरूप निर्देश नहीं मिलता, फिर भी देवीमाहात्म्य और अन्य पुराणोक्त स्तोत्रों में देवी के लिए सार्वत्रिक वन्दना‑पद प्रचलित हैं। उदाहरणार्थ—
“या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।”
(मार्कण्डेय पुराण, देवीमाहात्म्य)
यह सार्वभौम स्तुति माँ शैलपुत्री—जो मातृ‑स्वरूप की परिपूर्ण अभिव्यक्ति हैं—की वन्दना के लिए भी समान रूप से उपयुक्त है।
समकालीन पाठक के लिए शास्त्रीय सावधानियाँ
- पाठ‑प्रामाणिकता: पुराणों के अनेक प्रती और संस्करण हैं; कथानकों में उपलक्षण और क्षेत्रीय विविधताएँ मिल सकती हैं। इसलिए जब भी अध्याय/श्लोक‑स्तर की पुष्टि अपेक्षित हो, तब किसी प्रतिष्ठित आलोچ्य संस्करण (critical edition) की शरण लेना उचित है।
- लोक‑आचार बनाम शास्त्र‑निर्देश: नवरात्र आदि में जो भी आधुनिक रीति‑रिवाज जुड़े हों, उन्हें आदर‑पूर्वक अलग रखते हुए शास्त्रीय मूल को समझना चाहिए। यह लेख उसी दृष्टि से संयत है।
- आइकनोग्राफी की मर्यादा: देवालय‑चित्रांकन और शिल्प परंपरा में जो विवरण मिलते हैं, वे प्रायः पुराण‑कथाओं से प्रेरित होते हैं, पर शब्दशः उद्धरण का विकल्प नहीं। अतः जहाँ पाठ‑आधार अस्पष्ट हो, वहाँ संकेत रूप में ही बातें कही गई हैं।
निष्कर्ष: शैल की पुत्री, शक्ति की मूर्ति
माँ शैलपुत्री का जीवन‑चरित—जैसा कि शिवपुराण, देवीभागवत पुराण, स्कन्दपुराण और मार्कण्डेय पुराण (देवीमाहात्म्य) की धाराओं से संयोजित होता है—देवी‑तत्त्व के धैर्य, तप, करुणा और ऐक्य का अप्रतिम संवेद्य है। सती‑वियोग के दुःख से लेकर हिमालय‑कुल में पुनर्जन्म, कठिनतम तप और अंततः शिव‑विवाह—यह समूची यात्रा हमें बताती है कि शक्ति का लक्ष्य केवल व्यक्तिगत पूर्णता नहीं, बल्कि जगत‑कल्याण है।
शैलपुत्री—जो पर्वत‑कन्या हैं—हमारे भीतर अचल संकल्प और सौम्य करुणा दोनों का संगम जाग्रत करती हैं। यही वह समन्वित आदर्श है जो पुराणिक परंपरा की आत्मा है और आज भी हमारे जीवन‑मूल्यों को दिशा देता है।
सामान्य प्रश्न (FAQs) — केवल पुराणाधारित संदर्भों के आलोक में
Q1. ‘शैलपुत्री’ किसका नाम है?
A. ‘शैलपुत्री’ देवी पार्वती (हैमवती/गिरिजा/उमा) की उपाधि है—जो हिमवान (हिमालय) और मेना की पुत्री हैं।
Q2. क्या शैलपुत्री सती का ही पुनर्जन्म हैं?
A. हाँ। पुराण‑कथाओं (प्रमुखतः शिवपुराण) में सती के आत्म‑त्याग के बाद देवी का हिमालय‑कुल में पार्वती रूप से अवतरण बताया गया है—यही शैलपुत्री हैं।
Q3. शैलपुत्री को नवदुर्गाओं में प्रथम क्यों कहा जाता है?
A. देवीभागवत पुराण में देवी‑रूपों और पूजा‑विधानों का वर्णन है। शाक्त‑परंपरा में वहाँ से विकसित नवदुर्गा‑प्रणाली में शैलपुत्री प्रथम‑रूप के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
Q4. क्या किसी पुराण में ‘शैलपुत्री’ नाम प्रत्यक्ष मिलता है?
A. देवी के रूप में पार्वती/हैमवती/गिरिजा/उमा—ये नाम प्रत्यक्ष मिलते हैं; ‘शैलपुत्री’ उपाधि भी पुराणों‑प्रेरित वाङ्मय में प्रचलित है, जिसका अर्थ ‘पर्वत‑कन्या’ है।
Q5. शैलपुत्री‑पूजा के आधुनिक विधान क्या पुराणों में मिलते हैं?
A. आधुनिक रंग‑विधान, नैवेद्य और विशेष लोकाचार का प्रत्यक्ष निर्देश हर पुराण‑पाठ में समान रूप से नहीं है। शास्त्रीय दृष्टि से देवी‑स्तुति, जप और पाठ—जैसे देवीमाहात्म्य—का अनुष्ठान सर्वमान्य है; इस लेख में उन्हीं का संकेत किया गया है।
संदर्भ‑सूची (शास्त्र‑आधार)
- शिवपुराण — रुद्रसंहिता: सती‑खण्ड और पार्वती‑खण्ड के प्रसंग।
- देवीभागवत पुराण — देवी‑तत्त्व, रूप‑वर्णन और उपासना‑विधान के प्रसंग; नवदुर्गा‑परंपरा के शास्त्रीय सूत्र।
- मार्कण्डेय पुराण (देवीमाहात्म्य/दुर्गा सप्तशती) — देवी‑महिमा और सार्वत्रिक स्तुतियाँ (“या देवी सर्वभूतेषु…” आदि)।
- स्कन्दपुराण — हिमालय‑महात्म्य तथा हिमवान‑कुल की शुचिता के प्रसंग, जो शैलपुत्री‑कथा की धर्मभूमि को पुष्ट करते हैं।
अस्वीकरण (शुद्धता‑हित): इस लेख में केवल पुराणाधारित कथानकों का संयत पुनर्निवेशन किया गया है। आइकनोग्राफी/लोकाचार के वे अंश, जिनका प्रत्यक्ष पाठ‑स्थ प्रमाण अस्पष्ट है, उनसे परहेज़ रखा गया है—ताकि पाठक को शास्त्रीय मूल‑ग्रहण में सुविधा हो।