माँ चन्द्रघण्टा नवदुर्गा के तृतीय स्वरूप के रूप में व्यापक रूप से पूजित हैं। शैव और शक्ति—दोनों परम्पराओं में उनकी महिमा वर्णित मिलती है, विशेषतः देवी-भागवत और मार्कण्डेय-पुराण के देवी-माहात्म्य की परम्परा में दुर्गा के विविध रूपों की आराधना का विधान दिया गया है। चन्द्राकार अर्धचन्द्र से अलंकृत, करों में दिव्य आयुध धारण किए, और व्याघ्र या सिंह-वाहित—ऐसे तेजस्वी स्वरूप में वे धर्म-पालन, साधक-रक्षा, और अधर्म-विनाश की प्रतिमूर्ति हैं।
यह जीवन-चरित माँ चन्द्रघण्टा के उद्गम, स्वरूप-लक्षण, लीला-वर्णन, आराधना-विधि, और साधना-फल की चर्चा पुराण-आधारित दृष्टि से करता है—ताकि श्रद्धालु पाठक को शास्त्र-सम्मत, तथ्यनिष्ठ और स्पष्ट मार्गदर्शन प्राप्त हो।
नाम और प्रतीक का अर्थ
“चन्द्रघण्टा” नाम में दो प्रतीक समाहित हैं—“चन्द्र” अर्थात् अर्धचन्द्र और “घण्टा” अर्थात् दिव्य नादमय घंटा। पुराण-परम्परा में देवी का यह नाम उनके मस्तक पर अर्धचन्द्र अलंकार और कर में स्थित दिव्य-घण्टा के कारण प्रसिद्ध है। अर्धचन्द्र सौम्यता, शीतलता और कल्याण के साथ-साथ चक्र-धारिता और समय-चेतना का बोध कराता है, जबकि घण्टा का नाद दैत्य-विनाशक, अपद-विनाशक और शत्रु-मोह-हरक माना गया है। इस प्रकार नाम स्वयं देवी के कार्य-धर्म—रक्षा और धर्म-संरक्षण—का ध्वजावाहक है।
उद्गम और तात्त्विक स्वरूप
पुराणों में आद्य-शक्ति को परब्रह्म की शक्ति—माया, योग, और विद्या—कहा गया है। उसी आदिशक्ति के विविध विग्रहों में दुर्गा का बहुरूपी विस्तार वर्णित है। देवी-माहात्म्य (मार्कण्डेय-पुराण की परम्परा) में देवताओं की प्रार्थना से प्रकट होकर भगवती शुम्भ-निशुम्भ तथा महिषासुरादि दैत्यों का संहार करती हैं। नवदुर्गा—जो आराधना-क्रम का एक अंग हैं—इसी महामाया के नौ उपास्य रूप माने जाते हैं। माँ चन्द्रघण्टा इसी महामाया की तेजस्विनी धारणा हैं—क्रूर-दैत्य-दमन के साथ साधकों के लिए सुरक्षा-छत्र।
दार्शनिक दृष्टि से चन्द्रघण्टा का रूप “उग्र-शान्ति” का समन्वय है—विनाश में भी करुणा, और शौर्य में भी लोक-कल्याण। उनके आयुधों में शत्रु-दलन की शक्ति निहित है, परन्तु उनकी दृष्टि भक्तों पर प्रसन्न और अभयदायिनी कही गई है।
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विवाह-प्रसंग और देवी-तेज का प्रकट होना
शैव-शक्ति काव्य और पुराण-कथाओं में हिमवान-कन्या पार्वती का तप और शिव-विवाह एक प्रमुख प्रसंग है। इसी विवाह-प्रसंग से सम्बद्ध परम्परा में देवी का चन्द्रघण्टा रूप तेजस्वी, शौर्य-सम्पन्न और दैत्य-दमन के लिए तत्पर दिखाया गया है—जहाँ वे दिव्य आयुधधारिणी बनकर देव-लोक और पृथ्वी-लोक के भय को हरती हैं। यह वही शक्ति है जो शास्त्रानुसार धर्म-स्थापन हेतु अपनी क्रूरता को दुष्टों पर करुणा को भक्तों पर समान रूप से प्रकट करती है।
यहाँ यह समझना आवश्यक है कि पुराणों में देवी के रूप एक ही पराशक्ति की भिन्न-भिन्न कार्य-व्यञ्जनाएँ हैं। चन्द्रघण्टा रूप, विवाह-प्रसंग में देवी के शौर्य और सिंह- या व्याघ्र-वाहन के साथ उनके चलायमान तेज का बोध कराता है।
रूप-वर्णन: आयुध, वाहन और लक्षण
पुराण-परम्परा में माँ चन्द्रघण्टा का वर्णन बहु-भुजा, आयुध-धारिणी और सिंह या व्याघ्र-वाहित तेजोमयी रूप में मिलता है। प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं:
- मस्तक पर अर्धचन्द्र: अर्धचन्द्र उनके नाम का आध्यात्मिक आधार है—शीतलता, कल्याण और चैतन्य का प्रतीक।
- दिव्य घण्टा: कर में स्थित दिव्य घण्टा का नाद दैत्य-दल को कंपाने वाला माना गया है। नाद-शक्ति यहाँ मन्त्र-शक्ति का प्रतीक भी है।
- आयुध-सम्पन्नता: शस्त्र—त्रिशूल, खड्ग, धनुष-बाण, गदा, कमण्डलु, वरमुद्रा और अभयमुद्रा—इनका संघटन देवी के संहारक और पालन-पोषक, दोनों पक्षों को दर्शाता है।
- वाहन: सिंह या व्याघ्र—उग्र शौर्य और निर्भय गति का द्योतक।
- तेजस्वी किरण-जाल: पुराण-काव्य में देवी की प्रभामण्डलिता का वर्णन है—जो समस्त दिशाओं में प्रकाश-प्रसार कर भय और संशय का नाश करती है।
रूप-वर्णन का तात्पर्य यह है कि देवी का एक-एक अंग और आयुध किसी न किसी दैवी-कार्य—रक्षा, पालन, संहार, दान, और ज्ञान—का प्रतीक है।
दानव-दमन और धर्म-संरक्षण
देवी-माहात्म्य और अन्य शक्ति-प्रधान कथाओं में देवताओं की स्तुति पर भगवती शक्ति-रूप में प्रकट होकर दैत्यों का संहार करती हैं। चन्द्रघण्टा रूप की वर्णित महिमा में राक्षस-दल पर नाद-शक्ति और शस्त्र-प्रहार से ध्वंस का सन्देश है। यह दमन केवल विनाश-लिप्सा नहीं, धर्म-रक्षा है—जहाँ अधर्म-प्रवृत्तियाँ दबती हैं और साधक-समाज में निःशंकता स्थापित होती है।
पुराण-परम्परा में यह बार-बार प्रतिपादित है कि भगवती का क्रोध दुष्टों पर और कृपा भक्तों पर—अर्थात् जो धर्म-मार्ग पर हैं, उनके लिए देवी सदैव मंगलमयी हैं।
आराधना का शास्त्रीय आधार
शक्ति-उपासना के ग्रन्थों और पुराण-परम्परा में देवी की आराधना का मूल विधान मन्त्र, ध्यान, स्तोत्र-पाठ और अनुष्ठान-शुचिता पर आधारित है। नवदुर्गा के संदर्भ में तृतीया दिवस पर चन्द्रघण्टा की उपासना की परम्परा प्रतिष्ठित है; यह परम्परा देवी-माहात्म्य-पाठ, दुर्गा-स्तोत्र, और शाक्त-रूढ़ि के साथ जुड़कर चली है।
आराधना के आवश्यक तत्त्व:
- शुचिता और सङ्कल्प: शुद्ध आहार, सत्य-व्रत, और देवि-पूजन का सङ्कल्प।
- मूल-स्तोत्र-पाठ: देवी-माहात्म्य (जिसका पाठ परम्परा में नवदुर्गा आराधना का केंद्र माना गया), दुर्गा-चालीसा और अन्य स्तोत्र—यथा देव्या: गुण-गणनाएँ—परन्तु प्राथमिकता शास्त्रीय पाठ पर।
- मन्त्र-जप: चामुण्डा मन्त्र-परम्परा और दुर्गा-बीज परम्परा शक्ति-उपासना का अंग है; साधक अपनी परम्परा-गुरु के निर्देशानुसार जप-संख्या निर्धारित करता है।
- आह्वान और आरति: आह्वान, उपहार, नैवेद्य, दीपाराधन, और शान्ति-पाठ।
यहाँ यह भी समझना चाहिए कि पुराण शुद्ध हृदय, सत्य, दया, और धर्मपालन को ही सर्वोच्च पूजा मानते हैं। बाह्य-विधान तभी सार्थक हैं जब भीतरी साधना और आचरण पवित्र हों।
साधना-फल: शास्त्रीय प्रत्यय
पुराण-परम्परा साधना-फल को बाह्य-सिद्धि से अधिक अन्तःशक्ति-जागरण के रूप में परिभाषित करती है। माँ चन्द्रघण्टा की आराधना के प्रमुख फल निम्न प्रकार निरूपित किए जाते हैं:
- भय-निवारण और अभयदान: साधक के चित्त से भय, शंका और दुर्बलता का क्षय।
- शौर्य और धैर्य: कठिन कर्म-क्षेत्रों में स्थैर्य, निर्भीकता और धर्म-निष्ठा।
- विघ्न-नाश: अधर्म-प्रवृत्तियों और आसुरी वृत्तियों का शमन।
- कीर्ति और लोक-कल्याण वृत्ति: निजी कल्याण से आगे बढ़कर लोक-मङ्गल का भाव।
ये फल उसी साधना के साथ स्थायी हैं जिसमें संयम, गुरु-परम्परा का अनुशासन और शास्त्र-अनुरूपता बनी रहे।
चन्द्रघण्टा रूप का व्यावहारिक सन्देश
पुराण-कथाओं का उद्देश्य केवल दैत्य-वध का आख्यान नहीं, बल्कि धर्म-जीवन का सूत्र प्रस्तुत करना है। चन्द्रघण्टा रूप का सन्देश है कि जीवन में शौर्य और करुणा का संतुलन आवश्यक है। भय और अन्याय के सम्मुख मौन नहीं, बल्कि धर्म-सम्मत प्रतिरोध चाहिए; साथ ही मन में शीतलता, विवेक और संयम बना रहे। यही संतुलन साधना का मर्म है।
नवदुर्गा-संदर्भ में चन्द्रघण्टा
नवदुर्गा—शक्ति की नौ उपास्य धाराएँ—आराधना-क्रम में साधक को क्रमशः शुद्धि, शौर्य, ज्ञान, करुणा और समन्वय की ओर अग्रसर करती हैं। तृतीय दिन की उपासना में चन्द्रघण्टा का स्मरण साधक के भीतर साहस और निर्भयता का संस्कार देता है। यद्यपि दिन-क्रम का व्यवस्थित विधान परम्परा-ग्रन्थों और आचार्यों द्वारा समन्वित है, देवी-तत्त्व का मूल समझ यह है कि सभी रूप एक ही परम-शक्ति के आयाम हैं।
शास्त्रीय सन्दर्भों की रूप-रेखा
- मार्कण्डेय-पुराण—देवी-माहात्म्य (दुर्गा-सप्तशती की परम्परा): भगवती के आविर्भाव, देव-स्तुति और दैत्य-दमन के प्रसंग।
- देवी-भागवत-पुराण: देवी के विविध रूपों और उपासना-विधान का विस्तृत निरूपण।
- कालिका-पुराण आदि शक्ति-प्रधान ग्रन्थ: शक्ति-तत्त्व, उपासना और कालनिर्णय के सन्दर्भ।
इन सन्दर्भों का एकसूत्रीय तत्त्व यह है कि चन्द्रघण्टा, देवी के उग्र-शान्त स्वरूप का अभिव्यंजन हैं, जिनका प्रादुर्भाव धर्म-संरक्षण और साधक-रक्षा के लिए होता है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
1) क्या माँ चन्द्रघण्टा का उल्लेख स्वयं पुराणों में है?
देवी-तत्त्व और दुर्गा के विविध रूपों का विस्तार देवी-भागवत और मार्कण्डेय-पुराण की परम्परा में मिलता है। नवदुर्गा-रूप-आराधना इन शास्त्रीय धाराओं से पुष्ट परम्परा है; चन्द्रघण्टा इन्हीं उपास्य रूपों में एक मानी जाती हैं।
2) क्या देवी का वाहन सिंह है या व्याघ्र?
परम्परा में दोनों उल्लेख मिलते हैं। शक्ति-रूप की उग्रता और निर्भयता का बोध कराने के लिए कभी सिंह, कभी व्याघ्र—दोनों का प्रयोग काव्य और चित्रण में मिलता है।
3) क्या विशेष रंग, पुष्प या भोग का विधान पुराणों में निश्चित है?
पुराण मूलतः तत्त्व, नीति और साधना-धर्म का विधान करते हैं। भक्ति-काल और उत्तर-परम्परा में रंग, पुष्प और भोग के स्थानीय विधान प्रचलित हुए। अतः मूलाधार शास्त्रीय—मन्त्र, स्तोत्र और साधक-शुचिता—को प्राथमिकता देना उचित है।
4) क्या आराधना का अनिवार्य पाठ निर्धारित है?
देवी-माहात्म्य का पाठ, दुर्गा-स्तोत्र और परम्परा-गुरु से प्राप्त मन्त्र-जप, यह सब शास्त्रीय और सुरक्षित मार्ग हैं। साधना में गुरु-उपदिष्ट पद्धति सर्वोपरि मानी गई है।
माँ चन्द्रघण्टा का जीवन-चरित हमें यह सिखाता है कि धर्म-पालन के लिए केवल कोमलता पर्याप्त नहीं; शौर्य और संयम का संतुलन आवश्यक है। पुराण-परम्परा में उनका रूप लोक-रक्षा, अधर्म-विनाश और साधक-कल्याण का आश्वासन है। आराधना का सार शुद्ध हृदय, सत्य-व्रत, शास्त्रीय पाठ और गुरु-आदेश के पालन में निहित है। यही मार्ग साधक को भय-रहित, विवेकशील और लोक-कल्याण-निष्ठ बनाता है।