माँ कूष्माण्डा: जीवन-चरित (पुराण-आधारित)

नवदुर्गा के चतुर्थ स्वरूप के रूप में पूज्य माँ कूष्माण्डा शक्ति-तत्त्व की सृष्टि-प्रवर्तक, पालनकारी और भय-नाशिनी धारणा का प्रतिनिधित्व करती हैं। शाक्त-परम्परा में आदिशक्ति के रूप-विस्तार का जो निरूपण पुराणों—विशेषतः मार्कण्डेय-पुराण (देवी-माहात्म्य), देवी-भागवत-पुराण और अन्य शक्ति-प्रधान ग्रन्थों—में मिलता है, उसमें देवी का प्रत्येक रूप किसी विशिष्ट दैवी-कर्म का प्रतीक है। कूष्माण्डा—जिन्हें परम्परा में कदाचित् सूर्य-मण्डल-निवासिनी, अष्टभुजा/दशभुजा आयुध-धारिणी और सिंह-विहंगमा शक्ति के रूप में स्मरण किया जाता है—धर्म-संरक्षण और साधक-रक्षा के हेतु अविर्भूत मानी जाती हैं।

यह जीवन-चरित उनके नाम-निरुक्ति, उद्गम, रूप-लक्षण, दैवी-कर्म (लीला), आराधना-विधान और साधना-फल को पुराण-आधारित दृष्टि से समाहित करता है—ताकि पाठक को तथ्यनिष्ठ, शास्त्र-सम्मत और व्यावहारिक बोध एक साथ प्राप्त हो।

नाम-निरुक्ति और प्रतीकार्थ

कूष्माण्डा” नाम के संबंध में परम्परा एक प्रसिद्ध निरुक्ति रखती है—कु (कुछ/अल्प), उष्मा (ऊष्णता/तेज) और अण्ड (ब्रह्माण्ड/बीज)—जो देवी के सृष्टि-संकेतक रूप की ओर इंगित करती है। पुराण-धारा का मूल प्रतिपाद्य यह है कि आदिशक्ति से ही सृष्टि-चक्र का प्रारम्भ, स्थिति और संहार संचालित होता है; कूष्माण्डा रूप इसी प्रवर्तक-शक्ति का बोध कराता है।

प्रतीकार्थ में दो प्रमुख तत्व उभरते हैं:

  • सूर्य-सम्बन्ध: परम्परा में यह रूप तेज-प्रसार, जीवन-ऊर्जा और सतत कर्म-शक्ति का परिचायक माना गया है।
  • घट/अण्ड-रूप सृष्टि-संकेत: ब्रह्माण्ड-बीज के रूपक से सृष्टि-आरम्भ का दार्शनिक बिम्ब सूचित होता है—जो शाक्त वेदान्त के “एक-मेव अद्वितीयम्” के सृजन-विस्तार से संगत है।

ध्यानार्थ: नाम-निरुक्तियाँ पौराणिक-काव्य, टीकाएँ और परम्परागत व्याख्याओं में मिलती हैं—इनका तात्पर्य देवी को सृष्टि-प्रवर्तक शक्ति रूप में स्मरण करना है।

उद्गम-दृष्टि: शक्ति-तत्त्व और सृष्टि-प्रवर्तन

पुराण-परम्परा आद्य-शक्ति को परब्रह्म की महामाया मानती है—उसी से देवताओं का उत्स, लोक-व्यवस्था की गति और अधर्म-दमन की सामर्थ्य प्रकट होती है। देवी-माहात्म्य में देवों की स्तुति पर भगवती के विविध रूप प्रकट होकर दैत्य-दलन और धर्म-स्थापन करते हैं। देवी-भागवत-पुराण में भी आदिशक्ति के विश्व-व्योम-विस्तार, सृष्टि-क्रम और उपासना-विधान का विस्तृत विवेचन है।

इसी व्यापक शास्त्रीय आशय में कूष्माण्डा रूप की धारणा—सृष्टि-प्रारम्भ की प्रवर्तक शक्ति, तेज-समन्वय और कर्म-प्रधान लोक-व्यवस्था का आधार—समझी जाती है। यह रूप उग्रता और करुणा, दोनों का संतुलन है—जहाँ संहार दुष्ट-वृत्तियों का और संरक्षण धर्म-मार्ग का होता है।

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रूप-वर्णन: आयुध, वाहन और लक्षण

शक्ति-काव्य और पौराणिक वर्णनों में माँ कूष्माण्डा का तेजस्वी रूप बहुभुजा, आयुध-धारिणी और सिंह-वाहित/सिंह-स्थिता के रूप में स्मृत है। परम्परा में निम्न प्रमुख लक्षण वर्णित हैं:

  1. भुजाएँ: अष्टभुजा अथवा दशभुजा—जिनमें विविध आयुध समाहित रहते हैं।
  2. आयुध-समूह: खड्ग, त्रिशूल, गदा, चक्र, धनुष-बाण, माला (जप/ध्यान का संकेत), घट/कलश (पालन/पोषण-संकेत), कमण्डलु, और वर/अभय-मुद्रा—ये शस्त्र-शान्ति दोनों पक्षों के योग को प्रकट करते हैं।
  3. वाहन: सिंह—निष्कम्प शौर्य, निर्भयता और धर्म-रक्षा का प्रतीक।
  4. तेज-प्रभा: सूर्य-जैसे प्रभामण्डल का बिम्ब—जीवन-सत्ता और कर्म-ऊर्जा का निरन्तर स्रोत।

रूप-वर्णन का एक-एक अंग देवी के पञ्च-कर्म—सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव (आवरण) और अनुग्रह—से सम्बद्ध संकेत देता है।

दैवी-कर्म (लीला) और धर्म-संरक्षण

पुराणों का प्रस्थान-बिन्दु यही है कि जब-जब धर्म-व्यवस्था में विघ्न का प्रादुर्भाव होता है, तब-तब शक्ति अपने विविध विग्रहों से प्रकट होकर अधर्म का निवारण करती है। कूष्माण्डा रूप में देवी का सृष्टि-प्रवर्तन और पालन-व्यवस्था पर विशेष बल रहा—अर्थात् केवल दैत्य-दमन ही नहीं, बल्कि जीव-संसार में चेतना-प्रज्वलन और धर्म-नीति का प्रतिष्ठापन

देवी-माहात्म्य की काव्य-शैली में जहाँ-जहाँ शक्ति का उग्र-विग्रह असुर-विनाश हेतु सक्रिय दिखाई देता है, वहीं कूष्माण्डा रूप शौर्य-सम्मित शान्ति का बोध कराता है—जहाँ तेज और करुणा, दोनों का समन्वय लोक-कल्याण की दिशा में होता है।

उपासना-विधान (शास्त्रीय आधार)

शाक्त-परम्परा में उपासना का आधार मन्त्र, ध्यान, स्तोत्र-पाठ और आचार-शुचिता है। नवदुर्गा-उपासना के क्रम में चतुर्थ दिवस पर कूष्माण्डा की आराधना प्रतिष्ठित मानी जाती है। पौराणिक-धारा निम्न मुख्य तत्त्व सुझाती है:

  • शुचिता और सङ्कल्प: सत्य-व्रत, शुद्ध आहार, सात्त्विक आचरण और देवी-पूजन का दृढ़ सङ्कल्प।
  • पाठ-परम्परा: देवी-माहात्म्य (दुर्गा-सप्तशती परम्परा) का पाठ, देवी-स्तुतियाँ और शक्ति-तत्त्व के ध्यान-श्लोक—गुरु-परम्परा से प्राप्त विधि के अनुरूप।
  • मन्त्र-जप: शाक्त-सम्प्रदाय में बीज-मन्त्र और चामुण्डा-परम्परा के मन्त्र प्रचलित हैं; किन्तु उनकी संख्या/विधि सदैव गुरु-उपदिष्ट होनी चाहिए।
  • आह्वान, नैवेद्य, दीपाराधन: शास्त्रीय आह्वान, यथाशक्ति नैवेद्य और शान्ति-पाठ—आन्तरिक शुचिता सर्वोपरि।

ध्यानार्थ: पुराण मूलतः आचरण-शुद्धि, सत्य, दया और धर्म को ही सर्वोच्च पूजा का सार मानते हैं; बाह्य-विधान तभी फलदायी हैं जब भीतरी साधना सुदृढ़ हो।

साधना-फल (शास्त्रीय प्रत्यय)

कूष्माण्डा-आराधना के फल, जैसा कि शास्त्रीय परम्परा सम्यक् रूप से प्रतिपादित करती है, आन्तरिक बल और समाज-कल्याण वृत्ति के रूप में प्रकट होते हैं:

  1. जीवन-ऊर्जा और तेज: मानसिक दुर्बलताओं, संशयों और भय का क्षय; सतत कर्म-शक्ति का जागरण।
  2. धैर्य और विवेक: कठिन परिस्थितियों में स्थैर्य और धर्म-सम्मत निर्णय-शक्ति।
  3. विघ्न-निवारण: आन्तरिक/बाह्य विघ्नों—आलस्य, प्रमाद, क्रोध, अहं—का शमन।
  4. लोक-सेवा वृत्ति: निजी कल्याण से आगे बढ़कर लोक-मंगल की साधना—यही शाक्त-धर्म का प्राण है।

यह स्मरण आवश्यक है कि फल नियमित साधना, संयम और गुरु-आदेश के पालन से ही स्थायी होते हैं।

नवदुर्गा-क्रम में कूष्माण्डा का स्थान

नवदुर्गा—शक्ति-तत्त्व के नौ उपास्य आयाम—साधक को क्रमशः शुद्धि, तप, शौर्य, सृष्टि-विकास-बोध, मातृ-करुणा, वीर्य-सम्बल, ज्ञान-प्रकाश, सिद्धि-समन्वय और सम्पूर्णता की ओर अग्रसर करते हैं। इस क्रम में कूष्माण्डा (चतुर्थ) रूप सृष्टि-चेतना और कर्म-ऊर्जा के जागरण का संकेत देती हैं—अर्थात् साधक के जीवन में संकल्प-शक्ति का प्रतिष्ठापन।

सूर्य-सम्बन्धी बिम्ब और दार्शनिक अर्थ

परम्परा में कूष्माण्डा को सूर्य-मण्डल-निवासिनी के रूप में भी स्मरण किया जाता है। इस बिम्ब का दार्शनिक तात्पर्य यह है कि शक्ति जीवन-ऊर्जा का आदिस्रोत है—जैसे सूर्य लोक-व्यवसाय का पोषक है—वैसे ही देवी का तेज साधक-समाज के जीवन-उत्स को पोषित करता है। यहाँ तेज केवल भौतिक प्रकाश नहीं, बल्कि धर्म, ज्ञान और विवेक का आन्तरिक प्रकाश है।

धर्म-नीति और कूष्माण्डा-तत्त्व

पुराण-धारा का निष्कर्ष यही है कि शक्ति-आराधना का लक्ष्य व्यक्तिगत सिद्धि नहीं, बल्कि धर्म-नीति की स्थापना है। कूष्माण्डा-तत्त्व साधक को तीन स्तरों पर सजग करता है—

  1. स्व-शासन: वृत्तियों का नियन्त्रण; विषय-आसक्ति पर संयम।
  2. स्व-बल: परिश्रम, अनुशासन और समय-विवेक—जिसे परम्परा “कर्म-ऊर्जा” कहती है।
  3. समाज-सेवा: परिवार, कार्य-क्षेत्र और समाज में न्याय, दया, सत्य का पालन।

इस त्रि-स्तरीय अनुशासन से ही शक्ति-आराधना जीवन-योजना बनती है—जहाँ भक्ति, ज्ञान और कर्म, तीनों का समन्वय हो।

पुराण-आधारित आराधना में क्या न करें

  • अशास्त्रीय विधियाँ: परम्परा में स्वीकृत मन्त्र/विधान के अतिरिक्त किसी अनधिकृत विधि का प्रयोग न करें।
  • आडम्बर: बाह्य सज्जा/आडम्बर की अपेक्षा शुचिता और सत्संकल्प को प्राथमिकता दें।
  • विवादास्पद दावे: जो बातें शास्त्रीय आधार के बिना लोक-श्रुति में आयी हों, उन्हें निर्णायक रूप में न मानें; पहले शास्त्रीय प्रमाण देखें।

लोक-परम्पराएँ: शास्त्र-संगत दृष्टि

बहुतेरी स्थानीय परम्पराएँ कूष्माण्डा-पूजन से जुड़ी हैं—विशेष भोग, विशिष्ट रंग, पुष्प आदि। पुराण का मूल आग्रह यह है कि मन्त्र-पाठ, आचरण-शुचिता और धर्म-पालन सर्वोपरि हैं। अतः लोक-विधान अपनाते समय भी शास्त्रीय प्राथमिकता और गुरु-निर्देश को वरीयता दें।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

1) क्या कूष्माण्डा का उल्लेख स्वयं पुराणों में है?

शक्ति-तत्त्व के विविध रूपों का विस्तार देवी-माहात्म्य और देवी-भागवत-पुराण में मिलता है; नवदुर्गा-आराधना का प्रवाह इन्हीं शास्त्रीय धाराओं से पुष्ट परम्परा है। कूष्माण्डा इसी उपास्य-विधान में स्मृत रूप मानी जाती हैं।

2) क्या कूष्माण्डा केवल उग्र-विनाशिनी रूप हैं?

नहीं, यह रूप सृष्टि-प्रवर्तक और पालनकारी भी है—उग्रता दुष्ट-वृत्तियों के विनाश हेतु, और करुणा भक्त-रक्षा हेतु।

3) क्या किसी विशेष मन्त्र का सार्वकालिक विधान है?

मन्त्र-जप सदैव गुरु-परम्परा के निर्देशानुसार होना चाहिए। शास्त्रीय पाठ—देवी-माहात्म्य—सुरक्षित और प्रचलित मार्ग है।

4) क्या वाहन, भुजाएँ और आयुध की संख्या स्थिर है?

पौराणिक-काव्य में आलेख्य और स्तुतियाँ भिन्न-भिन्न संख्या/विवरण प्रस्तुत करती हैं; तात्पर्य देवी-तत्त्व के कर्म-आयाम का बोध कराना है—संख्या की स्थिरता नहीं।

शिक्षोपयोगी सन्देश: भीतरी तेज का जागरण

कूष्माण्डा-तत्त्व साधक को सिखाता है कि भीतरी तेज—जिसका अर्थ है धैर्य, संयम, परिश्रम, और सत्य-निष्ठा—जीवन-सफलता का आधार है। शक्ति-पूजन का सार यही है कि हम अपनी वृत्तियों को धर्म के अनुशासन में रखकर जगत-सेवा की दिशा में कर्मरत रहें।

माँ कूष्माण्डा नवदुर्गा की वह धारा हैं जो सृष्टि-चेतना और कर्म-ऊर्जा का सतत संचार करती है। पुराण-परम्परा का यह समग्र संदेश है कि शक्ति-आराधना व्यक्ति को निर्भय, सहनशील, विवेकशील और लोक-हितैषी बनाती है। उपासना का सार शुद्ध हृदय, शास्त्रीय पाठ और गुरु-आदेश में निहित है—यही मार्ग साधक को दीर्घकालीन शान्ति और सार्थकता प्रदान करता है।

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