माँ कात्यायनी: जीवन-चरित (पुराण-आधारित)

माँ कात्यायनी, शक्ति-तत्त्व का वह तेजस्वी आयाम हैं जो धर्म-रक्षा, दैत्य-विनाश और साधक-रक्षा—तीनों को एक साथ प्रत्यक्ष करता है। शाक्त-धारा में आदिशक्ति के अनेक रूप हैं; उन्हीं में कात्यायनी का स्मरण उग्र-तेज, साहस और लोक-कल्याण के लिए किया जाता है। देवी-माहात्म्य (मार्कण्डेय-पुराण की परम्परा) और देवी-भागवत-पुराण में भगवती के प्राकट्य, दैत्य-वध और धर्म-स्थापन की धाराएँ केन्द्र में हैं; इसी व्यापक शास्त्रीय परिदृश्य में कात्यायनी-तत्त्व, महिषासुर-मर्दन के उग्र-आयाम और भक्त-रक्षा के करुण आयाम—दोनों का संयोजन है।

कृष्ण-भक्ति परम्परा में भागवत-पुराण (दशम स्कन्ध, अध्याय 22) का कात्यायनी-व्रत-प्रसंग विशेषतः उल्लेखनीय है, जहाँ व्रज की कुमारियाँ माँ कात्यायनी देवी की पूजा कर भगवान कृष्ण को पति रूप में वरण करने का वर माँगती हैं। इससे स्पष्ट है कि कात्यायनी का रूप केवल उग्रता नहीं, वरदान-प्रदा मातृ-करुणा भी है। यह जीवन-चरित नाम-निरुक्ति, उद्गम, रूप-लक्षण, प्रमुख पुराण-कथाएँ, आराधना-विधान, साधना-फल और धर्म-नीति—इन सबको पुराण-आधारित दृष्टि से क्रमबद्ध करता है।

नाम-निरुक्ति और परम्परा

कात्यायनी” नाम के संबंध में पुराण-परम्परा में एक विख्यात दार्शनिक/आलेख्य व्याख्या चलती है—महर्षि कात्यायन/कात्यायन (कात्य) के तप-फल से देवी का प्राकट्य, अथवा कात्य-कुल में प्रकट होने के कारण “कात्यायनी” नाम। यह व्याख्या शक्ति-रूप को ऋषि-तप और देव-कार्य से सम्बद्ध दिखाती है—यानी देवी का जन्म/प्राकट्य किसी अहैतुकीय चमत्कार नहीं, बल्कि धर्म-रक्षा के हेतु ईश्वरीय अनुग्रह और ऋषितप के संयोग से है।

नाम-निरुक्ति का तात्पर्य है कि कात्यायनी रूप, आचार्य-तप और लोक-मंगल की सामूहिक आकांक्षा से आविर्भूत शक्ति है। यही कारण है कि वे उग्र-शान्ति का समन्वय मानी जाती हैं—अधर्म-दमन में उग्रता और भक्त-रक्षा में शान्ति/करुणा।

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उद्गम-दृष्टि: आदिशक्ति और कात्यायनी-तत्त्व

पुराण-ग्रन्थ आद्य-शक्ति को परब्रह्म की महामाया, देव-शक्ति और विश्व-व्यवस्था की संचालिका कहते हैं। देवी-माहात्म्य में देवताओं की स्तुति पर भगवती प्रकट होकर असुर-दल का विनाश करती हैं; यह विनाश केवल संहार नहीं, धर्म-व्यवस्था की पुनर्स्थापना है। इसी परम्परा में कात्यायनी, महिषासुर-मर्दन और भय-निवारण के लिए स्मरित रूप हैं—जहाँ देवी का तेज दुष्टों पर उग्र और भक्तों पर करुणामयी रहता है।

देवी-भागवत-पुराण में देवी के बहुरूपी विस्तार, उपासना-विधान और देव-कार्य के प्रसंग विस्तृत हैं। कात्यायनी-तत्त्व इन्हीं धाराओं का उग्र-तेजस्वी प्रगटीकरण है—सहऩशीलता/करुणा के साथ वीर्य-सम्बल और साहस का जागरण।

रूप-वर्णन: आयुध, वाहन और लक्षण

पौराणिक-काव्य और स्तुतियों में कात्यायनी का विग्रह बहुभुजा, आयुध-धारिणी और सिंह-वाहित/सिंह-स्थिता के रूप में स्मृत है। आयुधों में त्रिशूल, खड्ग, चक्र, धनुष-बाण, गदा, कमण्डलु, वर/अभय-मुद्रा आदि का वर्णन भिन्न-भिन्न ग्रन्थों/स्तुतियों में मिलता है। इस विविधता का उद्देश्य कर्म-आयाम का संकेत देना है—संख्या/विवरण की स्थिरता पुराणों का विषय नहीं।

रूप-लक्षणों का तात्पर्य यह है कि कात्यायनी के एक-एक आयुध में पालन और संहार—दोनों के संकेत निहित हैं: वर/अभय-मुद्रा—भय-निवारण/अभयदान; शस्त्र—अधर्म-दमन; कमण्डलु/घट—पालन और शान्ति का बिम्ब। सिंह-वाहन निर्भयता और धर्म-रक्षा का शाश्वत प्रतीक है।

महिषासुर-वध: उग्र-शौर्य का आदर्श

देवी-माहात्म्य में देवताओं के तेज से प्रकट भगवती ने महिषासुर सहित अनेक असुरों का संहार किया। शास्त्रीय परम्परा इस उग्र-विग्रह को “महिषासुर-मर्दिनी” के रूप में गौरवती करती है। विविध शाक्त परम्पराओं में यही उग्र-विग्रह कात्यायनी नाम से भी स्मरित होता है। तत्त्वतः यह एक ही आदिशक्ति का कार्य-व्यञ्जन है—नाम-भेद से शास्त्रीय आशय नहीं बदलता: अधर्म-दमन, धर्म-स्थापन और भक्त-रक्षा।

महिषासुर-वध, केवल बाह्य-युद्ध की कथा नहीं; यह मनुष्य के आन्तरिक असुर-वृत्तियों—अहं, मद, मत्सर, हिंसा—पर विजय का रूपक भी है। कात्यायनी-तत्त्व साधक को सिखाता है कि शौर्य न्याय और संयम के भीतर रहकर ही परिपूर्ण है; अन्यथा वह केवल उग्रता रह जाती है।

कात्यायनी-व्रत (भागवत-पुराण 10.22) और वरदान-परम्परा

भागवत-पुराण के दशम स्कन्ध (अध्याय 22) में व्रज की कुमारियों का कात्यायनी-व्रत वर्णित है। वे शीत-ऋतु में कात्यायनी देवी की पूजा का सङ्कल्प लेकर प्रतिदिन यमुना-स्नान, रेत/मृत्तिका से देवी-मूर्ति का निर्माण, पुष्प/धूप/नैवेद्य समर्पण और निम्न मन्त्र-जप करती हैं—

कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरी।
नन्दगोपसुतं देवि पतिṁ मे कुरु ते नमः॥

इस प्रसंग का शास्त्रीय तात्पर्य यह है कि कात्यायनी—महामाया, महायोगिनी और अधीश्वरी—साधक की सात्त्विक कामना को धर्म-सीमा में पूर्ण करने वाली देवी हैं। व्रत का लक्ष्य यहाँ कृष्ण को पतिरूप में वरण करना था; पर उसका व्यापक संकेत यह है कि जीवन-संगिनी/संगिनी-चयन जैसे धर्माधारित गृहस्थ-निर्णयों में भी देवी का स्मरण साधक को संयत, सात्त्विक और मर्यादित बनाता है।

ध्यान रहे कि व्रत-विधि की सूक्ष्म चरण-संख्या, आहार-नियम आदि परम्परा/आचार्यों के अनुसार भिन्न हो सकते हैं; पुराण का मूल आग्रह शुचिता, सत्य और अहिंसा पर है।

शास्त्रीय आराधना: मूल-विधान और मर्यादा

शक्तोपासना का आधार मन्त्र, ध्यान, स्तोत्र-पाठ और आचार-शुचिता है। कात्यायनी-आराधना में शास्त्रीय प्राथमिकताएँ—

  • शुचिता और सङ्कल्प: सत्य-व्रत, सात्त्विक आहार, संयमित व्यवहार और देवी-पूजन का दृढ़ सङ्कल्प।
  • पाठ-परम्परा: देवी-माहात्म्य (दुर्गा-सप्तशती परम्परा) का पाठ, देवी-स्तुतियाँ और गुरु-दीक्षित मन्त्र-जप—आचार्य-निर्देशानुसार।
  • आह्वान, नैवेद्य, दीपाराधन: यथाशक्ति और शास्त्रीय आदेश के भीतर; आडम्बर नहीं, भीतरी शुचिता सर्वोपरि।

यहाँ यह स्मरणीय है कि पुराण आराधना का सार आचरण-शुद्धि मानते हैं—बाह्य-विधान तभी फलदायी हैं जब भीतरी साधना दृढ़ हो।

साधना-फल: शास्त्रीय प्रत्यय

कात्यायनी-तत्त्व साधक के भीतर अभय, धैर्य, संयम और न्याय-बोध का संस्कार स्थापित करता है। शास्त्रीय परम्परा जिन फलों का संकेत देती है, वे हैं—

  1. भय-निवारण और अभयदान: चित्त से भय/संशय का क्षय, आत्मविश्वास का जागरण।
  2. वीर्य-सम्बल और धैर्य: कठिन कर्म-क्षेत्रों में साहस, स्थैर्य और कर्तव्य-पालन।
  3. विघ्न-निवारण: आन्तरिक/बाह्य विघ्नों—आलस्य, प्रमाद, मोह—का शमन।
  4. लोक-कल्याण वृत्ति: निजी सिद्धि से आगे बढ़कर समुदाय-सेवा और न्याय-धर्म की प्रतिष्ठा।

ये फल दीर्घकाल तक तभी स्थायी होते हैं जब साधना नियमित, गुरु-निर्देशित और शास्त्रानुरूप हो।

धर्म-नीति और गृहस्थ-धर्म

कात्यायनी-तत्त्व गृहस्थ साधक को सिखाता है कि परिवार/समाज का पालन केवल स्नेह से नहीं, विवेकपूर्ण अनुशासन से होता है। धर्म-नीति के तीन सूत्र—

  1. सत्य और अहिंसा: वाणी/कर्म की शुचिता; राग-द्वेष से ऊपर उठकर न्याय।
  2. कर्तव्य-पालन: गृहस्थ, कार्य-क्षेत्र और समाज में उत्तरदायित्व निभाने का संकल्प।
  3. संयम और सेवा: विषय-नियन्त्रण, समय-विवेक और लोक-हित में योगदान।

कात्यायनी-आराधना का सार यही है कि करुणा और शौर्य साथ-साथ रहें—करुणा से संरक्षण, शौर्य से अधर्म-प्रतिरोध।

नवदुर्गा-परम्परा और माँ कात्यायनी का स्थान

शक्ति-तत्त्व के नौ उपास्य आयामों—जिन्हें परम्परा में नवदुर्गा कहा गया—में कात्यायनी का स्मरण उग्र-तेज, साहस और लोक-रक्षा के केन्द्रीय भाव के साथ होता है। यद्यपि नवदुर्गा का व्यवस्थित दिन-क्रम आचार्य-परम्परा में विन्यस्त है, देवी-तत्त्व का मूल यह है कि सभी रूप एक ही परम-शक्ति की कार्य-व्यञ्जनाएँ हैं; अतः कात्यायनी-आराधना का लक्ष्य भी धर्म-स्थापन और साधक-कल्याण है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

क्या माँ कात्यायनी का स्पष्ट उल्लेख पुराणों में है?

कात्यायनी—शक्ति-रूप—का स्मरण देवी-भागवत-पुराण आदि में मिलता है; भागवत-पुराण (10.22) में कात्यायनी-व्रत का विस्तृत प्रसंग है। देवी-माहात्म्य में महिषासुर-वध का उग्र-विग्रह प्रतिष्ठित है, जिसे अनेक शाक्त परम्पराएँ कात्यायनी-तत्त्व से समन्वित कर देखती हैं।

क्या माँ कात्यायनी और दुर्गा भिन्न हैं?

शास्त्रीय दृष्टि से एक ही आदिशक्ति के अनेक कार्य-आयाम हैं—नाम-भेद पर आशय नहीं बदलता। महिषासुर-वध का उग्र-विग्रह महिषासुर-मर्दिनी है; अनेक परम्पराएँ इसे कात्यायनी नाम से भी स्मरित करती हैं।

कात्यायनी-व्रत का सार क्या है?

भागवत-पुराण (10.22) के अनुसार यह व्रत शुचिता, संयम और सात्त्विक कामना के साथ देवी की पूजा का विधान है—यह गृहस्थ-धर्म के निर्णयों में भी साधक को मर्यादा/विवेक देता है।

क्या वाहन/आयुध/भुजाओं की संख्या निश्चित है?

पौराणिक-काव्य/स्तुतियों में भिन्नता मिलती है; तात्पर्य पालन और संहार—दोनों पक्षों के संकेत देना है, संख्या-स्थिरता नहीं।

शिक्षोपयोगी सन्देश: करुणा के साथ शौर्य

कात्यायनी-तत्त्व का उपदेश है कि करुणा दोष-पालन नहीं, रक्षा है; और शौर्य क्रोध-प्रदर्शन नहीं, अधर्म-प्रतिरोध। साधना का लक्ष्य भी यही है—भीतर संयम, बाहर न्याय; तभी धर्म-व्यवस्था स्थिर रहती है।

माँ कात्यायनी शक्ति-तत्त्व की वह धारा हैं जो साधक के जीवन में अभय, विवेक, संयम और लोक-सेवा का सतत संचार करती हैं। देवी-माहात्म्य और देवी-भागवत-पुराण की परम्परा में उनका उग्र-तेज अधर्म-नाश के लिए है, और भागवत-पुराण के कात्यायनी-व्रत-प्रसंग में उनका मातृ-विग्रह भक्तों की सात्त्विक इच्छाओं की पूर्ति के लिए—दोनों में एक ही मूल-सूत्र है: धर्म-स्थापन। आराधना का सार शुद्ध हृदय, शास्त्रीय पाठ और गुरु-आदेश में निहित है—यही मार्ग साधक को दीर्घकालीन शान्ति और सार्थकता देता है।

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