चंद्रभागा नदी के पवित्र तट पर बसी पंढरपुर नगरी, जहाँ कण-कण में भक्ति रस घुला है। यहीं विराजते हैं महाराष्ट्र के आराध्य, करोड़ों भक्तों के ‘विठोबा’ या ‘पांडुरंग’। उनकी सांवली, मनमोहक छवि हर किसी को अपनी ओर खींच लेती है। पर उनकी मूर्ति में एक बात जो सबसे अधिक ध्यान आकर्षित करती है और मन में जिज्ञासा जगाती है, वह है उनका अपने दोनों हाथों को कमर पर रखकर खड़ा होना। आखिर क्यों हैं भगवान विठ्ठल के हाथ कमर पर? यह केवल एक मुद्रा नहीं, बल्कि भक्ति, प्रतीक्षा और गहरे आध्यात्मिक रहस्यों का प्रतीक है। इसकी जड़ें एक महान भक्त की कथा में इतनी गहराई तक समाई हैं कि उसे समझे बिना विठोबा के इस स्वरूप का मर्म जानना अधूरा है।
यह कथा है भक्त पुंडलिक की, एक ऐसे व्यक्ति की जिसने सेवा का एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया कि स्वयं परब्रह्म उसके द्वार पर आकर उसकी प्रतीक्षा करने लगे।
प्रारंभ में, पुंडलिक का जीवन आज के कई युवाओं जैसा ही था। वह अपने माता-पिता, जानुदेव और सत्यवती के साथ डिंडीरवन नामक जंगल में रहता था। विवाह से पूर्व वह एक आज्ञाकारी पुत्र था, पर अपनी पत्नी के मोह में पड़कर वह अपने वृद्ध माता-पिता के प्रति कर्तव्यों से विमुख हो गया। उनका अनादर करना, उन्हें कटु वचन कहना उसकी दिनचर्या बन गई। उसकी पत्नी भी इस व्यवहार में उसका पूरा साथ देती। माता-पिता के हृदय को प्रतिदिन छलनी होते देख भी पुंडलिक का मन नहीं पसीजता था।
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अत्याचार और अनादर की पराकाष्ठा तब हुई जब पुंडलिक और उसकी पत्नी ने तीर्थयात्रा पर जाने का निश्चय किया। वे घोड़ों पर सवार होकर यात्रा के लिए निकले, जबकि अपने वृद्ध और दुर्बल माता-पिता को उन्होंने पैदल चलने पर विवश कर दिया। रास्ते में, रात्रि विश्राम के लिए वे एक पवित्र आश्रम में रुके, जो प्रसिद्ध कुक्कुट ऋषि का था।
उस आश्रम का वातावरण अत्यंत शांत और दिव्य था। रात्रि के अंतिम पहर में, जब पुंडलिक की नींद टूटी, तो उसने एक अद्भुत और अविश्वसनीय दृश्य देखा। उसने देखा कि मैली-कुचैली साड़ियों में तीन अत्यंत सुंदर, पर उदास स्त्रियाँ आश्रम में प्रवेश कर रही थीं। उन्होंने आश्रम के फर्श को साफ किया, ऋषि के वस्त्र धोए और सेवा के अन्य कार्य किए। सेवा समाप्त करते ही, जब वे आश्रम से बाहर निकलीं, तो उनके वस्त्र दूध के समान उज्ज्वल और उनके चेहरे दिव्य आभा से चमक रहे थे।
यह दृश्य देखकर पुंडलिक हैरान रह गया। वह दौड़कर उन स्त्रियों के पास गया और उनके चरणों में गिरकर उनकी पहचान पूछी। पहले तो उन्होंने बताने से मना किया, पर उसके बार-बार आग्रह करने पर वे बोलीं, “हम कोई और नहीं, बल्कि भारत की तीन पवित्र नदियाँ – गंगा, यमुना और सरस्वती हैं। जो लोग हमारे पवित्र जल में स्नान करके अपने पाप धोते हैं, उन्हीं पापों के बोझ से हम मलिन हो जाती हैं। लेकिन इस आश्रम में कुक्कुट ऋषि जैसे सच्चे मातृ-पितृ भक्त की सेवा करके हम पुनः पवित्र हो जाती हैं। ये ऋषि अपने माता-पिता की सेवा को ही ईश्वर की सबसे बड़ी पूजा मानते हैं। उनकी सेवा का पुण्य इतना प्रबल है कि हमारे सारे पाप धुल जाते हैं।”
गंगा, यमुना और सरस्वती के वचन पुंडलिक के हृदय में बाण की तरह चुभ गए। उसे अपने किए पर तीव्र पश्चाताप हुआ। उसे समझ आया कि जिसे वह तीर्थ समझकर काशी जा रहा था, वह सच्चा तीर्थ तो उसके अपने घर में ही उसके माता-पिता के चरणों में था। उसकी आँखों से पश्चाताप के आँसू बहने लगे। उसने उसी क्षण संकल्प लिया कि अब वह अपना शेष जीवन केवल अपने माता-पिता की सेवा में ही अर्पित कर देगा।
उस दिन से पुंडलिक का जीवन पूरी तरह बदल गया। वह अपने माता-पिता को वापस अपने घर ले आया और उनकी सेवा में दिन-रात एक कर दिया। वह उनके लिए पानी लाता, उनके पैर दबाता, उन्हें भोजन कराता और उनकी हर आज्ञा का पालन करता। उसकी सेवा में कोई दिखावा नहीं, कोई स्वार्थ नहीं, केवल शुद्ध भक्ति और सच्चा पश्चाताप था। उसकी मातृ-पितृ भक्ति की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई।
भक्त के हृदय का सच्चा भाव भगवान से भला कहाँ छिपा रह सकता है? अपने भक्त पुंडलिक की ऐसी अनन्य सेवा-निष्ठा देखकर द्वारका में बैठे भगवान श्रीकृष्ण का हृदय द्रवित हो उठा। वे अपनी प्रिय पत्नी रुक्मिणी के साथ अपने भक्त को दर्शन देने के लिए डिंडीरवन की ओर चल पड़े।
एक शाम, जब पुंडलिक अपने पिता के चरण दबा रहा था और उसकी गोद में पिता का सिर था, तभी उसके द्वार पर स्वयं भगवान कृष्ण पधारे। उन्होंने पुंडलिक को प्रेम से पुकारा, “पुंडलिक, द्वार खोलो! हम तुमसे मिलने आए हैं।”
अंदर से आती दिव्य वाणी को पुंडलिक ने पहचान लिया। वह जानता था कि उसके आराध्य स्वयं उसके द्वार पर हैं। एक क्षण के लिए उसका मन विचलित हुआ। वह उठकर दौड़ना चाहता था, भगवान के चरणों में गिर जाना चाहता था। लेकिन दूसरे ही पल उसे अपने कर्तव्य का बोध हुआ। उसके पिता गहरी निद्रा में थे और उनकी सेवा इस समय उसका परम धर्म था।
पुंडलिक ने बड़ी ही विनम्रता से, बिना अपनी जगह से हिले, द्वार की ओर मुख करके उत्तर दिया, “हे प्रभु! मैं आपको पहचान गया हूँ। आप मेरे आराध्य हैं। मेरा सौभाग्य है कि आपने मुझे दर्शन देने का निश्चय किया। परंतु, इस समय मेरे पिताजी शयन कर रहे हैं और मैं उनकी सेवा में लीन हूँ। मैं इस सेवा को बीच में नहीं छोड़ सकता। मेरे लिए यह सेवा आपकी पूजा से भी बढ़कर है।”
यह सुनकर भगवान कृष्ण मुस्कुराए। वे अपने भक्त की कर्तव्यनिष्ठा की परीक्षा ले रहे थे।
पुंडलिक ने आगे कहा, “हे कृपासिंधु! आपको कुछ देर प्रतीक्षा करनी होगी। मेरे आँगन में एक ईंट (मराठी में ‘वीट’) पड़ी है, कृपया उसे आसन स्वरूप ग्रहण करें और उस पर खड़े होकर मेरी प्रतीक्षा करें। जैसे ही मेरे पिता की नींद पूरी होगी, मैं स्वयं आकर आपका स्वागत सत्कार करूँगा।”
यह कहकर पुंडलिक पुनः अपने पिता की सेवा में तल्लीन हो गया, जैसे बाहर कुछ हुआ ही न हो।
भक्त की ऐसी आज्ञा और सेवा के प्रति ऐसी अविचल निष्ठा देखकर भगवान श्रीकृष्ण अत्यंत प्रसन्न हुए। भक्त के लिए जो कुछ भी कर सकता है, वह भगवान है। उन्होंने पुंडलिक की फेंकी हुई उस निर्जीव ईंट को किसी राजसिंहासन से भी अधिक सम्मान दिया। वे उस छोटी सी ईंट पर जाकर खड़े हो गए और अपने दोनों हाथ कमर पर रखकर अपने भक्त की सेवा पूरी होने की प्रतीक्षा करने लगे।
भगवान का यह स्वरूप अद्भुत था। उनके हाथ कमर पर थे, जो यह दर्शा रहे थे कि वे यहाँ किसी को वरदान या अभय देने नहीं आए, बल्कि एक भक्त की सेवा को देखने और उसकी प्रतीक्षा करने आए हैं। यह मुद्रा एक साक्षी भाव की मुद्रा है। यह दर्शाती है कि भगवान कर्मक्षेत्र से परे हैं, वे केवल दृष्टा हैं। कमर, जो शरीर का केंद्र है, उस पर हाथ रखना इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण का भी प्रतीक है। इसका एक गहरा आध्यात्मिक अर्थ यह भी है कि संसार रूपी भवसागर की गहराई केवल कमर तक ही है और जो भक्त उस तक पहुँच जाता है, भगवान उसे पार लगा देते हैं।
जब प्रातः काल पुंडलिक के पिता की नींद खुली और वह सेवा से निवृत्त हुआ, तब वह दौड़कर द्वार पर आया। उसने देखा कि उसके आराध्य, भगवान कृष्ण, उसी ईंट पर, उसी मुद्रा में खड़े-खड़े एक शिलामूर्ति में परिवर्तित हो गए थे। पुंडलिक भाव-विभोर हो गया। उसने भगवान से क्षमा माँगी और वरदान के रूप में यह प्रार्थना की कि वे इसी रूप में यहाँ सदा के लिए विराजमान रहें और अपने भक्तों का कल्याण करते रहें।
भगवान ने अपने भक्त की प्रार्थना स्वीकार की। ईंट पर खड़े होने के कारण उनका नाम ‘विठ्ठल’ पड़ा (वीट पर जो खड़ा है, वह विठ्ठल)। पुंडलिक द्वारा स्थापित वही स्थान आज ‘पंढरपुर’ कहलाता है, जो वारकरी संप्रदाय का सबसे बड़ा तीर्थ है।
अतः, भगवान विठ्ठल का कमर पर हाथ रखकर खड़ा होना केवल एक पौराणिक घटना का स्मरण नहीं है, बल्कि यह एक महान संदेश है। यह संदेश है – सेवा परमो धर्मः। यह हमें सिखाता है कि माता-पिता और अपने कर्तव्यों की निस्वार्थ सेवा ही ईश्वर की सच्ची भक्ति है। भगवान विठ्ठल का यह स्वरूप हमें बताता है कि यदि भक्त अपने धर्म का पालन सच्ची निष्ठा से करता है, तो स्वयं भगवान भी उसके लिए युगों-युगों तक प्रतीक्षा करने को तैयार रहते हैं। उनके कमर पर रखे हाथ मानो कह रहे हों, “तुम अपना कर्म करो, अपने धर्म का पालन करो, मैं यहीं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ, एक साक्षी के रूप में, तुम्हारे हर सच्चे प्रयास को देख रहा हूँ।” यह धैर्य, नियंत्रण और भक्त के प्रति असीम प्रेम का जीवंत प्रतीक है, जो आज भी लाखों-करोड़ों वारकरियों को पंढरपुर की ओर खींच लाता है।
जय जय राम कृष्ण हरी!